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________________ ३५४ आनन्द प्रवचन : भाग १० या अहिंसादि धर्म है, पति की सुराह ही उसकी सुराह है । किसी तरह पतिव्रता की ओर से पति के अहंकार को चोट पहुंचाई जाए, तभी संघर्ष होता है, परन्तु पतिव्रता पहले से ही नम्र, निरभिमानिनी, दासीवत् बनकर अपने आपको पति में विलीन कर देती है, अपना अहं पहले से ही काट कर फेंक दिया, तब अहंकार करने की गुंजाइश ही कहाँ रही ? पतिव्रता जब पति की इच्छानुगामिनी बनकर जब अपने पति को आत्मिक विकास का, आत्मिक प्रगति का तथा आत्म-समर्पण-साधना का माध्यम समझती हुई एक भावुक और निरहंकारी नम्र भक्ता की भूमिका में उतरती है, तब वह अनायास ही आत्मकल्याण का लक्ष्य हस्तगत कर लेती है। इसलिए पतिव्रतधर्म के पालन में आत्मिक प्रगति के साथ-साथ लौकिक प्रगति की असंख्य सम्भावनाएँ रही हुई हैं। पति-पत्नी दोनों में संघर्ष न होने से, या अभिन्नता होने से घर में कभी अशान्ति नहीं होती, भौतिक और आध्यात्मिक श्री की वृद्धि होती है, दोनों का शरीर स्वस्थ एवं सुपुष्ट रहता है, दोनों का स्वभाव नम्र, मृदु और एक-दूसरे के लिए सहयोग एवं सेवा का आदान-प्रदान का रहता है। अनेक धर्मकार्य, परोपकार और दान-पुण्य के कार्य उनके द्वारा होते रहते हैं। शरीर को केवल विषय-भोग का साधन न समझकर, इसे ब्रह्मचर्य एवं अहिंसा आदि धर्म का पालन करने में दोनों लगाते हैं, या देशसेवा, समाजसेवा आदि सत्कार्यों में लगाते हैं । परन्तु इन सब में प्राथमिकता पतिव्रतधर्म का पालन करने की तीव्र उत्कण्ठा वाली सन्नारी में होती है। वह धर्म का मर्म समझती है, वही इन सत्कार्यों की पहल करती है, और पति को भी सत्कार्यों के लिए प्रेरित करती है । पतिव्रता स्त्री का यह दायित्व और कर्त्तव्य भी होता है कि वह भोग की पुतली बनकर पति को विषय-भोग की ओर न खींचे, बल्कि स्वयं त्याग, वैराग्य एवं धर्म का मार्ग अपनाकर मोहग्रस्त पति का मोह दूर करके उसे भी विषयभोगों से विरत करे। हालाँकि पति की आत्म-सेवा का यह मार्ग बड़ा ही कठिन है। पति की इच्छाओं की अनुगामिनी बनी हुई पतिव्रता नारी कई बार भ्रम में भी पड़ जाती है। वह स्वयं यह सोच लेती है कि पति की इच्छा अगर धर्मानुप्राणित नहीं है, गलत है, उत्पथ पर जाने की है तो मुझे भी उसके पीछे चलना चाहिए, परन्तु यह पतिव्रता की गहरी भ्रान्ति है। पतिव्रता का यह अर्थ नहीं है कि पति की धर्मविरुद्ध, धर्ममर्यादा के खिलाफ, अनैतिक एवं आत्मा के लिए पतनकारिणी इच्छाओं की पूर्ति करे या उनका स्वयं अनुगमन करे । यहाँ मूल शब्द पतिव्रता है, पतिमता नहीं। पतिव्रता शब्द की गहराई में जाकर वह नारी सोचे तो यह भ्रान्ति दूर हो सकती है। पति+व्रता का रहस्यार्थ होता है, पति का जो व्रत-नियम-धर्म आदि है, तदनुसार ही पत्नी का हो, उसका विरोध करने वाला न हो। जैसा कि तुलसीकृत रामायण में बताया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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