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________________ राजमन्त्री बुद्धिमान सोहता ३४३ यह सुनकर राजा अत्यन्त कुपित हो गया। उसने मन्त्री को २४ घन्टे में राज्य छोड़कर चले जाने का आदेश दिया । मन्त्री ने कहा- "बहुत सुन्दर ! अच्छा हुआ ! कोई न कोई शुभ संकेत है, इसके पीछे भी।" और वह राज्य छोड़कर चला गया। कुछ दिनों पश्चात अंगूठा ठीक होने पर फिर एक दिन राजा सैर करने को दूर-सुदूर निकल गया। वहाँ शक्तिपूजक मिले। वे राजा को बत्तीसलक्षणा पुरुष जानकर देवी के आगे बलि चढ़ाने के लिए पकड़ ले गये। राजा बहुत घबरा गया, पर उसका कोई जोर न चल सकता था। राजा की गर्दन पर तलवार पड़ने ही वाली थी, कि एक आदमी चिल्लाया"ठहरो-ठहरो ! यह आदमी बलि के योग्य नहीं है, इसके हाथ का एक अंगूठा नहीं है। अंगहीन की बलि नहीं दी जा सकती । अतः इसे छोड़ दो।" राजा से शक्तिपूजकों ने कहा- "ले, तेरा घोड़ा, भाग जा यहाँ से !" राजा को छुटकारा मिला, तो सुख की साँस आई। अब उसे मन्त्री का वचन याद आया कि "यह अच्छा ही हुआ।" अगर आज अंगूठा कटा न होता तो मेरी हत्या अवश्य कर दी जाती। राजा ने अपने तत्त्वज्ञ मन्त्री की तलाश में आदमी भेजे, उसे ससम्मान लेकर वे आये। राजा ने कुशलमंगल प्रश्न के पश्चात पूछा-"मन्त्रीवर ! मैंने तुम्हें देशनिकाला दिया, वह अतिसुन्दर कैसे ?" मन्त्री ने कहा-महाराज! अगर मैं आपके साथ होता तो आपके बदले मुझे बलि दे दिया जाता, इस कारण मेरा अतिसुन्दर कहना ठीक ही था।" राजा उसके परमतत्त्वज्ञान से बहुत ही प्रभावित हुआ और हर एक कार्य उसकी राय लेकर करने लगा। वास्तव में परमतत्त्व जिसका हृदयंगम हो जाता है, वह बड़ी से बड़ी आपत्ति के अंधड़ आने पर भी विचलित नहीं होता। इसके अतिरिक्त मन्त्री के गुणों में विशेष गुण ये हैं-राजा के कोप को शान्त करने वाला, शुद्धहृदय, निर्व्यसनी, सदाचारी, विद्वान, अर्थ के मामले में पवित्र आदि । ये सब आप जानते ही हैं । मन्त्री के दूषण सभी मन्त्री योग्य और वफादार ही होते हैं, ऐसी बात नहीं है । वर्तमान युग में तो ईमानदार, देशभक्त, वफादार एवं जनहितैषी मन्त्रियों का दुष्काल-सा हो गया है । मन्त्री की परख संकट के समय, या जनता और राष्ट्र के सम्बन्धों में बिगाड़ आने पर या राजकर्मचारियों तथा अधिकारियों में अनुशासन, वफादारी आदि की कमी एवं फूट को मिटाने और सम्बन्धों को सुधारने में होती है। जो मन्त्री इस परीक्षा में फेल हो जाता है, वह अयोग्य एवं असफल मन्त्री है । नीतिकार कहते हैं मन्त्रिणां भिन्नसन्धाने, भिषजां सान्निपातिके। कर्मणि व्यज्यते प्रज्ञा, सुस्थे को वा न पण्डितः ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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