SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीक्षाधारी अकिंचन सोहता ३११ लोगों ने कहा- "हम गुलामों को पकड़कर बाजार में बेचते हैं।" डायोजिनिस बोला-"तो लो, हम चलते हैं।" लोग यह देखकर चकित थे, यह स्वयं चल रहा है। कोई भी गुलाम पकड़ो तो भागता था, मगर यह व्यक्ति तो भागता नहीं । फिर डायोजिनिस ने कहा- "मेरे हाथ-पाँव छोड़ दो। जो तुम्हारे साथ जाना न चाहे उसे तुम जंजीरों से बाँधकर नहीं ले जा सकते । जंजीरें खोल लो, मैं स्वयं चलता हूँ।" वे उसे खुले बदन ले गए। डायोजिनिस बहुत लम्बा, तगड़ा, स्वस्थ सन्त था। वह नंगा रहकर भी सुन्दर प्रतीत होता था। उसे एक चौखटे पर खड़ा कर दिया, जहाँ गुलामों की खरीद-बिक्री होती थी। बेचने वाले ने जब आवाज लगाई कि कौन इस गुलाम को खरीदता है ? मगर डायोजिनिस ने कहा- "यह मत कहो । आवाज मैं ही लगाऊँगा।" फिर डायोजिनिस ने चौखट पर खड़े होकर कहा-"किसी को मालिक खरीदना हो तो खरीदो।" लोग सुनकर बहुत हैरान हो गये । भीड़ लग गयी। लोग बोले-"क्या मजाक की बात है ?" डायोजिनिस ने फक्कड़ता से उत्तर दिया- "मैं हर हालत में मालिक ही बना रहूँगा। ये लोग जो मुझे पकड़कर लाये हैं। मैं स्वयं इन्हें डांटता-फटकारता ला रहा हूँ। मैंने इन्हें कितना सुधारा है, ठीक किया है ? पूछो इनसे।" डायोजिनिस को जो लोग पकड़ कर लाये थे, वे भी इससे भयभीत थे। वह कहने लगा—'कोई मुझे गुलाम समझकर न खरीदना । जो गुलाम होना चाहता है, वही गुलाम हो सकता है । हम तो मालिक हैं, किसी को मालिक खरीदना हो तो खरीद लो।" कहते हैं, एक राजा ने गुस्से में आकर उसे खरीद लिया। घर ले जाकर उसने अपने नौकरों से कहा- "इसकी टाँग तोड़ दो।" डायोजिनिस ने टाँग आगे कर दी। राजा ने कहा-"देखो, तुड़वा रहे हैं, तुम्हारी टाँग।" उसने कहा- "तुम क्या तुड़वा रहे हो, मैं खुद ही उसे आगे कर रहा हूँ क्योंकि मैं मालिक हूँ। तुड़वाओ तो तब, जब हम इसे बचाने का प्रयत्न करें। पर यह ध्यान रहे कि तुम घाटे में रहोगे, क्योंकि मैं फिर तुम्हारे लिए किसी काम का न रहूँगा, बोझ रूप हो जाऊँगा । तुमने मुझे खरीदा है, वह धन बेकार जाएगा।" राजा को भी बात समझ में आ गई। उसने कहा-"जाने दो, इसकी टाँग मत तोड़ो।" ___ सचमुच डायोजिनिस अपने आप का स्वयं ही मालिक था, इसलिए कि उसने अपनी आत्मा के सिवाय और किसी चीज को अपनी माना ही नहीं था। जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy