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________________ ब्रह्मचारी विभूधारहित सोहता २६३ इन शब्दों का तात्पर्य यही है कि वास्तविक व्यक्तित्व कपड़ों, वेश-भूषा या शरीर की सजावट से नहीं प्रगट होता; वह उसके उज्ज्वल चरित्र, ब्रह्मचर्य और संयम से प्रगट होता है। ये उद्गार जिस समय स्वामीजी ने प्रगट किये थे, उस समय भारतवर्ष में सौन्दर्य प्रदर्शन और फैशन का महारोग नहीं लगा था, परन्तु आज इस महारोग ने घर-घर में प्रवेश कर लिया है। विभूषा से क्या लाभ, क्या हानि ? स्थूल सौन्दर्यदृष्टि वाले लोग कहते हैं, जमाने के अनुसार मनुष्य को चलना पड़ता है, समाज और जाति के कई रीति-रिवाज ऐसे हैं कि हम अपनी जाति की प्रतिष्ठा के अनुसार वेश-भूषा से सुसज्ज न हों, संतानों को भी वैसे सुसज्ज न करें तो लोग हमें पागल, झक्की और सनकी कहेंगे, हम समाज और जाति से अलग पड़ जायेंगे, हमारे बालकों के रिश्ते-नाते नहीं होंगे आदि । इसलिए कर्ज करके भी, इस पर समय और शक्ति खर्च करके भी हमें अमुक साज-सज्जा और वेशभूषा अपनानी पड़ती है। किन्तु इन युक्तियों में तथ्य कम है, अधिकतर युक्तियाँ कायरता और दुर्बलता की द्योतक हैं। समाज या जाति किसी को संयम, ब्रह्मचर्य एवं सादगी से रहने में क्या मनाही करता है ? क्या प्राचीन काल के लोग इतने धनाढ्य और सम्पन्न होते हुए भी संयम और सादगी से नहीं रहते थे। इसलिए विभूषा से लाभ का यह पलड़ा कोई वजनदार नहीं, बल्कि हानि का पलड़ा ही भारी है। विभूषा और टीप-टाप में प्रतिदिन कई घण्टे लगाने पड़ते हैं, फिर उसके लिए काफी पैसा खर्च करना पड़ता है, और उसकी चिन्ता में, पैसे जुटाने की चिन्ता में मनुष्य अपनी अमूल्य शक्ति का अपव्यय करता है । यह कितनी बड़ी हानि है ? और फिर ब्रह्मचारी को इतना समय कहाँ, उसके पास धन कहाँ ? अकिंचन साधु के पास तो बिलकुल धन नहीं होता। वह अपनी शक्ति इसमें क्यों लगाएगा ? वह अधिक से अधिक समय और शक्ति आत्मचिन्तन, जनसेवा, आत्मसाधना आदि में ही लगाएगा। यह घाटे का सौदा वह क्यों करेगा? बहुत-से लोग अहंता की पूर्ति या अमीरी के प्रदर्शन के लिए विभूषा को अपनाते हैं । परन्तु यह तो फिजूलखर्ची है। हजारों मनुष्यों से वाहवाही लूटने के लिए आकर्षक भड़कीली वेश-भूषा अपनाना और साज-सज्जा करना पैसों की होली करना कौन-सी अच्छी बात है ? इस प्रकार से दो दिनों के लिए अहंतापूर्ति के बजाय सादगी और संयम से रहकर उन पैसों को अभाव और दरिद्रता से पीड़ित जनों की सेवा में लगाते तो स्थायीरूप से अहंतापूर्ति होती, प्रतिष्ठा भी मिलती। दूसरों की अपेक्षा अपने को अधिक अमीर साबित करने के लिए भी जो लोग उद्भट बेश-भूषा या कामोत्तेजक साज-सज्जा अपनाते हैं, वे कई बार तो धनान्ध होकर इतना खर्च कर डालते हैं कि बाद में उन्हें अपने आवश्यक कार्यों को ठीक तरह से चलाने में भी कठिनाई महसूस होती है। किसी जमाने में अमीरी बड़प्पन का चिह्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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