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________________ आनन्द प्रवचन : भाग १० यज्ञ पुरोहित ने हरिकेशबल मुनि को यज्ञ मण्डप की ओर आते देखकर कहा - "अरे यहाँ कौन आ रहा है ? देखो तो सही, इसका रूप कितना भयंकर, काला कलूटा और विकराल है ? इसकी नाक चिपटी है, असभ्य के से जरा से कपड़े लपेटे है, धलधूसर है, पिशाच सा है, गले में शंकर का सा दृष्य (वस्त्र) पहने हुए किस आशा से यहाँ आ रहा है ? -२६० जो लोग आत्म-सौन्दर्य से अनभिज्ञ थे, केवल लोकमूढ़तावश बाह्य वेशभूषा, टीप-टाप और सुन्दर कपड़ों से सुसज्जित शरीर को ही सौन्दर्य का मूल समझते थे, वे अज्ञानी, धर्मद्वेषी, जातिमद से ग्रस्त, हिंसामय यज्ञपरायण, अब्रह्मचारी, विप्र लोग उन्हें देखते ही उपहास करने लगे । परन्तु हरिकेशबल मुनिवर तो तपस्वी थे; क्षमाधारी एवं शान्तिपरायण थे । उन्होंने उन लोगों द्वारा किये गये असभ्य व्यवहार पर जरा भी ध्यान नहीं दिया | 1 उनके तप-तेज एवं शान्त - दान्त जीवन से प्रभावित होकर तिन्दुकवृक्षवासी यक्ष उनका भक्त बन गया था। मुनि की ओर से उस यक्ष ने उन विप्रों को सारी बातें समझायीं कि ये मुनि क्यों इस प्रकार भिक्षा के लिए घूमते हैं ? इनको भिक्षा देने से क्या लाभ है ? ब्रह्मचारी एवं तपस्वी होने से शरीर के प्रति इनकी कोई आसक्ति नहीं है; इसलिए ये शरीर को विभूषित करने और कृत्रिम सौन्दर्य लाने में अपना समय, शक्ति और संयम धन बर्बाद करना नहीं चाहते, भिक्षा से प्राप्त आहार, स्वपर - कल्याण के लिए विहार तथा शरीर निर्वाह के लिए निद्रा, नीहार आदि करते हैं, बाकी सारा समय स्वाध्याय, ध्यान, आत्मचिन्तन, आत्मनिरीक्षण आदि में व्यतीत करते हैं । इतने पर भी अभिमानी ब्राह्मण उनके आत्मिक सौन्दर्य की कठोर परीक्षा करते हैं । उन पर प्रहार करते हैं, मगर उनका भक्त यक्ष उन्हें चमत्कार बताता है, प्रहार करने वाले ब्राह्मण कुमारों को बेहोश कर देता है; उनके मुँह से रक्तबमन हो रहा है । यह देखकर समस्त ब्राह्मण याज्ञिक उनसे क्षमायाचना करते हैं, उन्हें श्रद्धापूर्वक भिक्षा देते हैं । फिर उनसे वे अपनी शंकाओं का समाधान करते हैं । अन्त में मुनि के आत्मसौन्दर्य का साक्षात्कार करके वे कहते हैं सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो, न दीसइ जाइविसेस कोऽवि । सोवागपुत्तं हरिएस साहु, जस्सेरिसा इड्ढि - महाणुभावा ॥ अहा ! हमें तो इनमें कहीं भी जातिविशेष दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है, हम तो इनमें साक्षात् तपविशेष ही देख रहे हैं । वास्तव में इनकी आत्मा तप के सौन्दर्य मे ओतप्रोत है । हम तो जातिमद के कारण इनसे घृणा करते थे, इन्हें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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