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________________ ४ आनन्द प्रवचन : भाग १० पाती थी, विभिन्न विभागों के अधिकारीगण बीच में ही उसकी पुकार को दबा देते थे। इसलिए जनता के प्रतिनिधि ऋषि-मुनि या पवित्र निष्पक्ष ब्राह्मण, उक्त राज्याधिपों पर अंकुश रखते थे, कहीं-कहीं महाजन सामाजिक संगठन के अधिपति होते थे, वे जनता की आवाज राजा तक पहुँचाने का प्रयत्न करते थे। इसी प्रकार कई जगह विभिन्न जातियों के अपने-अपने संगठन होते थे और उनके अधिपति--सरपंच कहलाते थे, वे भी जनता की वास्तविक कठिनाइयाँ एवं दुःख-दर्द सुनकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करते थे, निष्पक्ष न्याय देते थे, पारस्परिक वैमनस्य मिटाते थे। इसलिए आप अधिप शब्द से केवल राजा को ही न लें, अपितु ऋषि-मुनि, ब्राह्मण, समाजनेता, राष्ट्रनेता, ग्रामाधिप, नगरसेठ, महाजन, सरपंच एवं अधिकारी आदि सब का समावेश 'अधिप' शब्द में कर लीजिए। महर्षि गौतम ने 'अधिप' शब्द का प्रयोग बहुत ही सोच-समझकर व्यापक दृष्टि से किया है। 'अधिप' शब्द का अर्थ वैसे तो 'अधिप' शब्द का सामान्य अर्थ होता है । अधिकं अधिकं पाति रक्षतीति अधिपः जो अपने अधीनस्थों का अधिकाधिक रक्षण करता हो, वह अधिप है। इसका तात्पर्य यह है कि अधिप को आधिपत्य एवं विशिष्ट अधिकार दिये जाते हैं, वे केवल जनता--अपनी अधीनस्थ जनता के हित, कर्तव्य, धर्म, नीति एवं न्याय की सुरक्षा तथा जान-माल की सुरक्षा के लिए ही दिये जाते हैं, अपनी स्वार्थसिद्धि, मौज-शौक, शान-शौकत, आरामतलबी, रंगरेलियां मनाने या जनता के द्वारा प्राप्त धन पर गुलछर्रे उड़ाने या सत्ता के मद में आकर किसी को अत्यधिक दण्ड देने, पीड़ित-पददलित करने या सताने के लिए नहीं । अधिप में गुण और योग्यता अधिप में दया, क्षमा, सहानुभूति, सेवा, धैर्य, गम्भीरता, श्रमनिष्ठा, सात्त्विक बुद्धि, उदारता, गुणग्राहकता, सदाचार, आदि विशिष्ट गुणों का होना आवश्यक है, फिर वह 'अधिप' चाहे जिस क्षेत्र का हो । उसका चरित्रवान् होना अनिवार्य है। साथ-साथ उसमें समय आने पर जनता के लिए अपने आपके त्याग, बलिदान एवं सर्वस्व न्यौछावर करने की वृत्ति होनी चाहिए। उसकी सूझबूझ, कर्तव्यबुद्धि एवं न्यायनिष्ठा इतनी तीव्र होनी चाहिए कि वह तुरन्त अपने कर्तव्य का निर्णय कर सके, न्याय दे सके और मार्गदर्शन भी दे सके । उसमें न्याय, नीति और धर्म के लिए मरमिटने की हिम्मत होनी चाहिए। अधिप को श्रेष्ठता अधिकार में नहीं, त्याग-बलिदान में है __अधिप को श्रेष्ठ मनुष्य माना जाता है । सम्भव है, इसी कारण बनियों या महाजनों को श्रेष्ठ (सेठ) कहने का रिवाज चल पड़ा हो। परन्तु अधिप की श्रेष्ठता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004013
Book TitleAnand Pravachan Part 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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