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चारित्र की शोभा : ज्ञान और सुध्यान–२ २५३ है, तब वह निश्चयमोक्षमार्गी होता है । अर्थात् ध्यान के द्वारा दोनों प्रकार के मोक्षमार्ग सधते हैं। जैसा कि पंचास्तिकाय में कहा गया है
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो।
तस्स सुहासुहडहणो झाणमओ जायए अगणी ॥ "जिसे मोह और राग-द्वेष नहीं है, तथा मन-वचन-कायरूप योगों के प्रति उपेक्षा है, उसके जीवन में शुभाशुभ को जलाने वाली ध्यानमय अग्नि प्रगट होती है।"
ध्यान चारित्र का विशिष्ट सहायक और चारित्र को सुशोभित करने वाला है, इसकी प्रतीति ध्यान के हेतुओं पर विचार करने से हो जाती है। तत्त्वानुशासन (७५/२१८) में ध्यान के ८ हेतु बताये हैं(१) संगत्याग-बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग एवं कुसंग परित्याग
करना। (२) कषायनिग्रह-क्रोधादि एवं हास्यादि का परित्याग करना । (३) इन्द्रियों पर विजय-पाँचों इन्द्रियों पर सम्यक् संयमन करना । (४) व्रतों की धारणा-अहिंसादि व्रतों का सम्यक् पालन करना । (५) गुरु-उपदेश चिन्तन-सद्गुरु के उपदेश का चिन्तन जो ध्यानादि के
स्वरूप आदि का सम्यक् बोध दे सके । (६) श्रद्धान–प्राप्त उपदेशों पर श्रद्धा रखना। (७) अभ्यास-ज्ञान एवं श्रद्धा के अनुरूप सतत अभ्यास करना। () स्थिर मन-मन को चंचलता रहित बनाना । बृहद द्रव्यसंग्रह में भी ध्यान के ५ हेतु बताये गये हैं(१) वैराग्य, (२) तत्त्वज्ञान, (३) असंगता, (४) स्थिरचित्तता या समचित्तता, (५) परीषह जय ।
इन सब ध्यानहेतुओं पर विचार करने से यह स्पष्टतः कहा जा सकता है कि सुध्यान चारित्र का मुख्य सहायक, प्रेरक और शुद्धिवर्द्धक है। वास्तव में, सुध्यान आध्यात्मिक ऊर्जा का मुख्य स्रोत है। वह व्यावहारिक जीवन को स्वस्थ, संतुलित और ईमानदार बनाता है, सामाजिक जीवन को मर्यादित, प्रगतिशील और मैत्रीपूर्ण बनाता है, और आध्यात्मिक जीवन को संयमी, वीतरागता से ओतप्रोत, तथा शुद्ध-बुद्ध ।
प्राच्य ही नहीं, पाश्चात्य मनीषी भी ध्यान को श्रद्धापूर्वक अपनाने लगे हैं, इसके भौतिक, आध्यात्मिक सभी लागों से परिचितहोकर वे आकृष्ट हुए हैं, भौतिक
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