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________________ ७६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जिस व्यक्ति में क्रोध, द्वेष, रोष, ईर्ष्या आदि प्रचण्ड आवेश हैं, और जो अविनीत है, अहंकारी है, गर्व से ग्रस्त है, उसके पास ऐसी स्थिर सात्त्विक बद्धि नहीं फटकती, वह पलायन कर जाती है। धन और पद होने से स्थिरबुद्धि नहीं आती दुनिया की दृष्टि में आज बुद्धिमत्ता और सर्वगुणसम्पन्नता की कसौटी धन और पद को माना जाता है। जिसके पास बहुत धन है या विलासिता के प्रचुर साधन हैं या जिसको जितना बड़प्पन या उच्च पद मिला है, वह सांसारिक दृष्टि से उतना ही चतुर और बुद्धिमान कहलाता है। परन्तु विचार करने पर यह मापदण्ड सर्वथा अनुपयुक्त और भ्रान्तिपूर्ण सिद्ध होता है। जो छलबल से अधिकाधिक सम्पत्ति प्राप्त कर लेता है, जो अनुचित और अवांछनीय साधनों से धन इकट्ठा कर लेता है या दूसरों का धन हड़प लेता है, उसे बुद्धिकुशल और चतुर मानने की संसार में उल्टी प्रथा चल पड़ी है। अनीति, अन्याय और तिकड़मबाजी से बहुत से व्यक्ति धनवान हो जाते हैं, धूर्तता से बड़प्पन या उच्च पद भी पा सकते हैं। अमीर बाप का अयोग्य बेटा भी प्रचुर सम्पत्ति का अधिकारी हो सकता है । लाटरी खुल जाने पर हीन स्तर का व्यक्ति भी धनाढ्य कहला सकता है जबकि सज्जन और सद्गुणी व्यक्ति परिस्थितिवश पिछड़ी हालत में रह सकता है। इसमें बुद्धिमत्ता की परख कहाँ हुई ? संयोगवश मिली हुई भौतिक सफलताओं या सिद्धियों से किसी भी व्यक्ति की बुद्धिमत्ता या बड़प्पन को आँकना या नापना कथमपि उचित नहीं है और यह कथन भी नितान्त भ्रान्तिपूर्ण है कि जो रातदिन धन के पहाड़ पर रहता है, उसकी बुद्धि बढ़ जाती है या उसमें बुद्धि स्वतः अनायास ही आ जाती है। एकमात्र भौतिक उन्नति में अपने जीवन का अणु-अणु लगा देने वाला चाहे व्यवहार में कितना ही बड़ा आदमी क्यों न कहलाता हो, चाहे वह नेता और सत्ताधीश ही क्यों न हो, उसे स्थिरबुद्धि नहीं कहा जा सकता। स्थिरबुद्धि-प्राप्ति का मापदण्ड महर्षि गौतम ने संक्षेप में सौम्यता और विनीतता को बताया है, न कि केवल धन-सम्पत्ति या कोरे पद को। बुद्धि ही बड़ी है, धन सम्पत्ति नहीं इसी पूर्वोक्त भ्रान्ति के कारण सहसा लोग कह देते हैं धन-सम्पत्ति बड़ी है, बुद्धि का क्या बड़ा ? बुद्धि तो धन से खरीदी जा सकती है। ___'धनवान बड़ा होता है या बुद्धिमान ?' इस बात का निर्णय करने के लिए एक राजा ने एक धनवान और एक बुद्धिमान को रोम के सम्राट के पास भेजा। साथ ही एक पत्र लिखा कि इन दोनों को तत्काल फाँसी पर लटका दिया जाय । धनवान ने वहाँ पहुँचकर फाँसी देने वालों को सोने का हार देकर जान बचाने की कोशिश की, मगर सफलता न मिली। किन्तु बुद्धिमान ने शीघ्र ही कुछ उपाय सोचकर धनवान के कान में कहा-“तुम यह कहना कि पहले मैं मरूँगा।" आगे का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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