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________________ आनन्द प्रवचन : भाग ६ आदि भी अपना छोटा-सा सुन्दर घरौंदा बना लेते हैं । मकड़ी किसी ऊँची दीवार, वृक्ष या बिजली के खंभे पर चढ़कर देखती है कि हवा किधर चल रही है । फिर उधर ही बिना माध्यम के उड़कर चलती हुई दो ऐसे स्थानों को जोड़कर आलीशान हवाईमहल तैयार कर लेती है, जैसा आज तक मनुष्य नहीं कर पाया । ५८ बाह्य दृष्टि से देखा जाय तो मनुष्य और अन्य पंचेन्द्रिय प्राणियों की शारीरिक रचना में कोई खास अन्तर नहीं है । दो हाथ, दो पैर मनुष्य के भी होते हैं पशुओं के भी । पशु-पक्षी आगे के दो पैरों को हाथ के तौर पर काम में लाते हैं । नाक के दो नथुने, दो आँखें, दो कान, एक मुँह, दाँत, मस्तक, पेट, पीठ, अस्थिपिंजर, चमड़ी, जननेन्द्रिय आदि मनुष्य के अतिरिक्त अन्य जीवों में भी पाये जाते हैं । अन्तर बहुत थोड़ा है । वनमानुष की चेष्टाएँ भी मनुष्य से मिलती-जुलती हैं । इन समानताओं के आधार पर ही मनुष्य को सामाजिक पशु (Man is the social animal) कहा जाता है । किन्तु जिस कारण मनुष्य को भिन्न श्रेणी का सामाजिक पशु माना जाता है, वह उसकी बुद्धिशीलता है । बाल, 1 मनुष्येतर प्राणियों में जो बुद्धि होती है, वह दूरगामी नहीं होती, उसकी सूझबूझ तात्कालिक और उसी क्षेत्र में होती है, वह सर्वांगीण नहीं होती, पशु-पक्षियों में सामाजिकता नहीं होती । वे अपनी परम्परा से जिस ढर्रे से चलते आये हैं, उसी ढर्रे से चलते जाते हैं, उसमें कोई भी परिवर्तन नहीं करते, जबकि मनुष्य की बुद्धि ने हजारों-लाखों वर्षों में अनेक परिवर्तन किये हैं, करता चला आ रहा है और भविष्य में भी करेगा । पशु-पक्षियों में दूसरे की प्रेरणा से चलने की बुद्धि होती है, उनमें स्वतन्त्र बुद्धि नहीं होती, दूसरे के इशारों का ज्ञान प्रायः नहीं होता । जैसा कि बुद्धि का फल बताते हुए नीतिकार कहते हैं उदीरितोऽर्थः पशुनाऽपि हयाश्च नागाश्च वहन्ति अनुक्तमप्यूहति परें गितज्ञानफला पण्डितो हि गृह्यते । नोदिताः ॥ Jain Education International जनः । बुद्धयःः ।। १ "कही हुई बात तो पशु भी ग्रहण कर लेता है, प्रेरित करने पर तो हाथी और घोड़े भी चलते हैं, किन्तु बुद्धिमान व्यक्ति बिना कही हुई बात भी जान लेता है, क्यों कि दूसरे के इंगित को जान लेना ही बुद्धि का फल है ।" पशु-पक्षियों में यह बुद्धि नहीं होती कि वृद्धावस्था में एक निष्ठावान साथी की जरूरत है; जब कि मनुष्य विधिवत् विवाह करके साथी जुटा लेता है । मनुष्य में संस्कृति और धर्म की समानता होने पर संगठित हो जाने की बुद्धि है; पशु-पक्षियों में ऐसा नहीं है । उनका बच्चा सयाना होते ही कहीं दूर चला जाता है और वे असहाय १ हितोपदेश २४६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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