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________________ ५४ आनन्द प्रवचन : भाग : नहीं कि आप अपनी वर्तमान स्थिति में सन्तुष्ट न रह सकें और आपको उत्तम सुख प्राप्त न हो सके । पातंजल योगदर्शन तो सन्तोष से सुख प्राप्ति की गारन्टी देता है 'सन्तोषादुत्तमः सुखलाभः' -सन्तोष से उत्तम सुख प्राप्त होता है । आध्यात्मिक जीवन का मुख्य द्वार : सन्तोष कई लोग यह तर्क किया करते हैं कि जब हमारे पास धन, बल, साधन और बुद्धि है तो हम अपनी सम्पत्ति और साधन-सुविधाएँ अधिकाधिक क्यों न बढ़ाएँ ? अपनी अल्पसाधनयुक्त स्थिति में ही सन्तुष्ट होकर बैठ जाना क्या आलसी बनकर बैठ जाना नहीं है ? भगवान महावीर ने इस पर बहुत सुन्दर समाधान दिया है । यदि मनुष्य मन में तृष्णा या लोभवृत्ति रखकर अधिकाधिक धन और साधन बढ़ाने के पीछे दौडधुप करेगा, या अपनी आवश्यकताएँ बढ़ाएगा, तो वह आगे चलकर तृष्णा की मृगमरीचिका में ऐसा उलझ जाएगा कि सुख तो उससे कोसों दूर हो जाएगा, उसे अपने जीवन का आत्मविकास, आत्मनिरीक्षण एवं आत्मशुद्धि करने का जरा भी अवकाश न मिलेगा, और न ही उसके लिए श्रवण, मनन एवं कुछ धर्माचरण करने की रुचि रहेगी। तब कृत्रिम विषय-सुखों या पदार्थजनित क्षणिक सुखों का जितना आकर्षण बढ़ता जाएगा, व्यक्ति का जीवन उतना ही जटिल, अस्त-व्यस्त, संघर्षमय, ईर्ष्यालु, असन्तुष्ट एवं दुःखी बन जाएगा, आत्मा पर अशुद्धियों का जाला जम जाएगा ऐसे परिग्रह और आरम्भ के सागर में डूबे हुए लोग सच्चे वीतगग-धर्म का श्रावण भी नहीं कर सकते, आचरण तो बहुत दूर की बात है। .. पूर्वपुरुषों के जीवन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनमें जो शक्ति और बुद्धि थी, उससे वे आज की अपेक्षा करोड़ों गुना अधिक सम्पत्ति अर्जित कर सकते थे, वैज्ञानिक उपलब्धियाँ भी प्राप्त कर सकते थे, तब जनसंख्या भी अधिक न थी, इसलिए साधन और सुविधाएँ भी अब की अपेक्षा कई गुना अधिक उन्हें प्राप्त हो सकती थीं, परन्तु उन्होंने भौतिक सम्पत्ति को तथा आवश्यकताओं में वृद्धि को महत्त्व नहीं दिया । यही कारण है कि वे अपने जीवन में महान् आध्यात्मिक उन्नति कर सके । मनुष्य के मन में जब तक काम (इच्छाओं, कामनाओं एवं वासनाओं) क्रोध एवं लोभ का महत्त्व रहेगा, तब तक बाहर से वह कितनी ही हठयोग साधना करले, आध्यात्मिक विकास नहीं होगा, उसके लिए सन्तोष को ही अपनाना होगा, जिससे इन तीनों (काम, क्रोध, लोभ) विकारों का शमन हो सके । इसे ही रामचरितमानस में कहा गया हैबिनु संतोष न 'काम' नसाहीं । काम अछत सपनेहु सुख नाहीं ॥ नहि संतोष तो पुनि कछु कहहू । जनि 'रिस' रोकि दुःसह दुख सहहू ॥ उदित अगस्त्य पंथजल सोखा। जिमि लोभहिं सोखहिं संतोखा ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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