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________________ सुख का मूल : सन्तोष दो पड़ौसी थे। दोनों की कौटुम्बिक एवं आर्थिक स्थिति एक-सी थी, पर दोनों के स्वभाव में रात-दिन का अन्तर था । दोनों के स्वभाव के अनुसार एक का नाम रुदन्तजी आँसूवाल और दूसरे का नाम हसन्तजी दिलखुश था । रुदन्तजी के पास जब कोई आता, तब वे अपना कोई-न-कोई दुखड़ा रोया करते । कभी कहतेआज तो बिक्री कम हुई, आज अमुक ने मुझे प्रणाम न किया, कभी कहते -आज रोटी ठीक न बनी, आज दाल में नमक ज्यादा पड़ गया, आज तो दस्त साफ न लगी, कभी हाथ में फुंसी की शिकायत होती, तो कभी धोबी अभी तक कपड़े नहीं लाया की फरियाद । इस प्रकार वे हर आगन्तुक के सामने छोटे-बड़े दो-चार दुःखों का पुराण पढ़ने बैठ जाते । उनका यह पुराण तब तक बन्द न होता, जब तक आने वाला व्यक्ति किसी जरूरी काम का बहाना बनाकर वहाँ से चला नहीं जाता । वे चाहते थे कि आगन्तुक हमारे दुःखों को सुनकर सहानुभूति बताए, हमारे प्रति दया और प्रेम करे । परन्तु होता यह कि लोग थककर उनसे किनाराकसी करने लगते । नतीजा यह हुआ कि दु:ख सुनने वाला न होने से रुदन्तजी का दुःख और बढ़ गया । हसन्ती इससे बिलकुल उलटे स्वभाव के थे । सुख और दुःख दोनों हैं । और सभी के जीवन में हैं । इसलिए दुःख सुनाया जाय और दुःखी किया जाय ? हमसे भी हैं । हम उनके लिए तो रोते नहीं, अपने लिए क्यों रोएँ ? क्या कम है कि उसने हमें किसी-न-किसी से अच्छा बनाया ? तो एक से अच्छा बना दिया !" वे रोते आदमी को हँसाते ही नहीं थे, बल्कि उसका दुःख भुला देते थे । आदमी उनके पास बैठने को लालायित रहते थे । रुदन्तभाई को इससे ईर्ष्या, कुढ़न और जलन होती, वे हसन्तजी को जादूगर समझते या बदमाश कहते । लोगों को मूर्ख, उल्लू, नासमझ आदि कहकर उनकी घृणा बढ़ाते थे । एक तो वे स्वयं असन्तुष्ट होने से दुखी रहते थे, फिर ईर्ष्या के सामान ने उन्हें और अधि दुःखी बना डाला । सामग्री एक सी होने पर भी एक रोता रहता, दूसरा हँसता वे कहते थे – “दुनिया में क्यों किसी को अपना ज्यादा दुःखी लाखों पड़े परमात्मा की यह मर्जी मालिक ने सौ से बुरा रहता । ४६ सन्तोषी जीवन : हर हाल में खुश संसार का यह नियम है कि जो व्यक्ति हँसमुख, प्रसन्नचित्त, आशावादी, उत्साही और सन्तुष्ट होते हैं, उनके पीछे-पीछे लोग फिरते हैं, क्योंकि हर व्यक्ति अपने जीवन में कुछ दुःख और चिन्ता छिपाये बैठा रहता है, वह अपना मन बहलाने के लिए ऐसा सहारा ढूँढ़ता है, जहाँ उसके घावों को कुरेदा न जाय, उन पर मरहम लगाया जाए । इस दृष्टि से लोग मनोरंजन में अपना बहुत सा समय और धन खर्च करते हैं । यही आवश्यकता लोग उस व्यक्ति से पूरी प्रसन्न और अनुद्वेग्न हो । करना चाहते हैं, जो सन्तुष्ट, खिले हुए गुलाब के चारों ओर भौंरे इसलिए मँरडाते हैं, क्योंकि उसका फूल अपने आप में सर्वागपूर्ण, प्रसन्न, विकसित और सफल दिखाई देता है । सूखे, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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