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________________ ४४ आनन्द प्रवचन : भाग ६ उस व्यापारी की भी आप ही की तरह अनेक योजनाएं बनी थीं, जिन्हें पूरा करने का वह स्वप्न देख रहा था कि आज यकायक वह मृत्यु की गोद में सदा के लिए सो गया। उसकी सारी इच्छाएं इस पृथ्वी के गर्भ में समा गई । मैं निःसंकोच कह सकता हूँ कि आपकी स्थिति भी उस व्यापारी से बहुत कुछ मिलती-जुलती है और आप सर्वप्रथम धन की इच्छा पूर्ण कर लेना चाहते हैं, तत्पश्चात जब धन की इच्छा न रहेगी, तब धर्मकर्म का श्रीगणेश करेंगे । परन्तु धन की इच्छा इस प्रकार न तो किसी की पूर्ण हुई है, न होगी। "इसलिए यदि कुछ करना ही है तो इच्छापूर्ति का एक ही इलाज है, वह है सन्तोष । यदि संतोष धन आपको प्राप्त हो जाए तो संभव है, धर्म की ओर आपकी कुछ प्रवृत्ति हो सके, अन्यथा आपकी भविष्य की ये सब योजनाएँ आपके साथ ही जाएँगी।" शेखसादी की स्पष्ट एवं यथार्थ बातें सुनकर व्यापारी की मोहनिद्रा भंग हुई। वह समझ गया कि अब तक जीवन की इस लम्बी अवधि में जब धन की थोड़ी मात्रा में भी इच्छा पूर्ण न हुई तो शेष अल्पकाल में अनेक इच्छाएँ कैसे पूरी होंगी ? अतः व्यापारी उसी दिन से अपना कुछ समय धर्माचरण में लगाने लगा और सतत इस ओर प्रवृत्ति बढ़ाता ही रहा । संतोष प्राप्त हो जाने पर उसे सांसारिक कार्यों में भी यथासम्भव सफलता मिलती गई । इसीलिए संत सुन्दरदासजी ने कहा है--- जो दस बीस पचास भये, सत होई हजारतूं लाख मगैगी। कोटि अरब्ब खरब्ब असंख्य पृथ्वीपति होने की चाह जगैगी ॥ स्वर्ग पाताल को राज करौं, तृष्ना की अति आग लगेगी। 'सुन्दर' एक सन्तोष बिना शठ ! तेरी तो भूख कबु न भगैगी ॥ वास्तव में सन्तोष के बिना बढ़ती हुई इच्छाओं एवं तृष्णा का कोई भी अकसीर इलाज नहीं है। अपने ही सम्बन्ध में बहुत दूर तक की सोचना मनुष्य का स्वार्थी होना है। इस अतिस्वार्थ का त्याग किये बिना सन्तोष प्राप्त नहीं हो सकता, और संतोष के बिना सच्चा सुख नहीं मिल सकता । इसीलिए महर्षि गौतम ने कहा असन्तोषं परं दुःखं सन्तोषः परम सुखम् । सुखार्थी पुरुषस्तस्मात् सन्तुष्टः सततं भवेत ॥ इस संसार में दुःख का कारण असन्तोष है । संतोष ही सुख का मूल है। इसलिए जिसे सुख की अभिलाषा हो वह सतत सन्तुष्ट रहे। असन्तुष्ट : सदा दुःखी ___ अपनी वर्तमान परिस्थितियों में असन्तुष्ट रहना अधिकांश मनुष्यों का स्वभाव होता है। उनका वर्तमान कितना ही अनुकूल क्यों न हो, किन्तु वे खिन्नता और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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