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________________ सुख का मूल : सन्तोष ४१ है। और यदि एक बार ये सभी चीजें प्राप्त हो जाएँ तो भी उनकी न्यूनाधिक मात्रा, या उत्कृष्टता का अभाव या उनमें से किसी इष्ट चीज के दियोग हो जाने पर उसके अभाव का प्रश्न सामने खड़ा हो सकता है। तात्पर्य यह है कि किसी न किसी रूप में अभाव मनुष्य को दुःखी करता रहेगा, बशर्ते कि मनुष्य अभावपूर्ति को सुख मानता रहे । __ यथार्थ बात यह है कि अभाव का होना न होना, वस्तुओं या परिस्थितियों की मात्रा अथवा स्तर पर निर्भर नहीं है। अभाव का अनुभव होना मनुष्य की अपनी मानसिक कमी पर निर्भर है। अभाव का वास्तविक अस्तित्व तो शायद ही होता हो, परन्तु मानव का दुर्वल और अधीर मन अपनी आदत के कारण उस अस्तित्व की कल्पना कर लेता है । अभाव के रूप में उसे अनुभव करने की मनुष्य की इस आदत का जन्म असन्तोष से हुआ करता है । इसीलिए पाश्चात्य विचारक कॉल्टन (Colton) कहता है "A tub was large enough for Diogenes, but a world was too little for Alexander.” 'डायोजीनिस के लिए एक टब भी बहुत बड़ा और पर्याप्त था, जबकि सिकन्दर (अलेक्जेंडर) के लिए सारी दुनिया भी बहुत छोटी और थोड़ी थी।' असंतोषी स्वभाव : अभावों से पीड़ित - आपको अनुभव हुआ होगा कि जिसका स्वभाव ही असन्तोषी है, वह बातबात में अभाव की आह निकालेगा। उसे कुबेर का खजाना और भूमण्डल का राज्य भी मिल जाए तो भी पूर्ति या सम्पन्नता का अनुभव नहीं करेगा। उसे अपनी सारी विभूतियाँ, सारी सम्पदाएँ कम ही मालूम होती रहेंगी। यदि ऐसा न होता तो जिस वस्तु के अभाव में कोई दुःखी होता है, तब उसी वस्तु के मिल जाने पर दूसरे को सुखी होना चाहिए । परन्तु ऐसा प्रायः देखने में नहीं आता। मनुष्य में लालसा इतनी अधिक बढ़ गई है कि वह अपनी उचित मर्यादाओं से कहीं अधिक चाहता है । वह यह नहीं सोचता कि मुझे अपनी योग्यता, श्रमशीलता क्षमता या दक्षता के अनुपात में जो कुछ मिला है, वह सन्तोषजनक है या नहीं ? अधिकांश व्यक्ति, जिनमें शिक्षित और व्यापारी आदि भी हैं, प्रायः असन्तुष्ट दिखाई देते हैं । इसका एक कारण यह है कि वह जितना प्राप्त हो चुका है या हो रहा है, उसे अपर्याप्त मानता है और अधिक वस्तुएँ प्राप्त करने के लिए लालायित रहता है । वह जितनी आकांक्षा करता है, उसकी तुलना में उसे जितना कम मिला होता है, उतना ही वह दुःखी और असन्तुष्ट रहता है । असीम इच्छाएँ कभी पूरी होती नहीं संसार में किसी की सभी इच्छाएँ या मनोकामनाएँ कभी पूरी नहीं होती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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