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________________ ४०८ आनन्द प्रवचन : भाग १ इतना सुनते ही गुरुजी ने उसे रोका और समझ लिया कि 'यही योग्य शिष्य है।' गुरुजी को विनय, ज्ञान और क्रिया में वही शिष्य उत्तम प्रतीत हुआ। अतः उन्होंने उसी को 'पट्टशिष्य' की पदवी प्रदान कर दी। कहा भी है परीक्षा सर्वसाधना शिष्याणाञ्च विशेषतः । कर्तव्या गणिना नित्यं त्रयाणां हि कृता यथा ॥ गणी (गुरु) को सब साधुओं की, विशेषतः अपने शिष्यों की परीक्षा अवश्य करनी चाहिए, जैसे इन तीन शिष्यों की परीक्षा की गई। ___ सुशिष्य की पहिचान की एक तीसरी विधि है-सत्कार्यों या कर्तव्यों से परखने की। जो शिष्य सत्कार्यों या अपने कर्तव्यों का पालन करने में दक्ष होता है, वह गुरु के चित्त को स्वतः आकर्षित कर लेता है। दशाश्रुतस्कन्ध (दशा ४) में गुरु के प्रति गुणवान शिष्य की ४ विनय प्रतिपत्तियाँ (कर्तव्यपालन विधियाँ)' बताई गई हैं (१) उपकरणोत्पादनता, (२) सहायकता, (३) गुणानुवादकता, और (४) भारप्रत्यवरोहणता। इनके अर्थ संक्षेप में क्रमश: ये हैं-गण में नये उपकरणों को उत्पन्न करना, पुराने उपकरणों की रक्षा करना, कम हों तो पूर्ति करना और साधुओं में यथाविधि वितरण करना उपकरणोत्पावनता है। __गुरु आदि के अनुकूल बोलना, अनुकूल चर्या करना, दूसरों को सुखसाता पहुँचाना, गुरु आदि का कार्य सरलता से करना, समय आने पर गुरु को भी ज्ञानदर्शन-चारित्र के पालन में सहायता करना सहायकता है। गण, गणगत योग्य साधुओं तथा गणी का यथातथ्य गुणानुवाद करना, इनका गुणानुवाद करने वाले को धन्यवाद देना और रोगी, वृद्ध, ग्लान एवं विद्वान् आदि की उचित सेवा-शुश्रूषा करना, गुणानुवादकता है। क्रोध आदि दुर्गुणों के कारण जो साधु-साध्वी गण से पृथक् हो रहे हों, या हो गये हों, उन्हें युक्ति, सान्त्वना एवं धौर्य से समझा-बुझाकर संयम में स्थिर करना, नवदीक्षित को आचार-विचार समझाना, रुग्णावस्था में सहर्मियों की सेवा करना, गण में कदाचित् परस्पर कलह उत्पन्न हो जाय तो निष्पक्षता से क्षमायाचना करवाकर उपशान्त करना भारप्रत्यवरोहणता है। १ तस्सेवं गुणजाइस्स अंतेवासिस्स इमा चउन्विहा विणयपडिवत्ती भवइ, तं जहाउवगरणउप्पायणया, साहिलया, वन्नसंजलणया, भारपच्चोरहणया। -दशाश्रुतस्कंध दशा० ४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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