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________________ ४०६ आनन्द प्रवचन : भाग १ लज्जा-दया-संजम-बंभचेरं कल्लाणमागिस्स विसोहिठाणं । जे मे गुरु सययमणुसासयंति, ते हं गुरू सययं पूययामि ॥' खड्डया मे चवेडा मे, अक्कोसा य वहा य मे। कल्लाणमणुसासंतो, पावदिहि ति मन्नइ ॥ अर्थात्- "तत्त्वदर्शी गुरु मुझे कोमल या कठोर वचन से जो शिक्षा (सजा) दे रहे हैं, वह मेरे लाभ के लिए ही है, यह सोचकर विनीत शिष्य उस गुरुशिक्षा को प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करे।" "दुष्कृत (पापकर्म) को दूर करने वाला, गुरुजनों का उपाययुक्त अनुशासन प्राज्ञशिष्य के लिए हित का कारण होता है, जबकि असाधु पुरुष के लिए वही अनुशासन द्वेष का कारण बन जाता है। ___"विनीत शिष्य गुरु की शिक्षा को पुत्र, भाई या ज्ञातिजनों को दी गई हितशिक्षा के समान हितकारी मानता है, जबकि पापदृष्टि अविनीतशिष्य उसी हितशिक्षा को नौकर को दी गई डांटडपट के समान खराब समझता है।" "लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य, ये चारों कल्याणभाजन साधु के लिए विशोधिस्थल हैं, वह मानता है कि जो गुरु मुझे इनकी सतत शिक्षा देते हैं, मैं उनकी सतत पूजाभक्ति करूं।" ___"गुरु मुझे ठोकरें (लात) मारते हैं, थप्पड़ लगाते हैं, मुझे कोसते हैं और पीटते हैं, इस प्रकार गुरुओं के कल्याणकारी अनुशासन को पापदृष्टि विपरीत मानता है।" सुशिष्य की गुरु द्वारा कठोर परीक्षा लेने का यह एक तरीका है। इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने पर गुरु उस शिष्य को सुशिष्य मान लेता है। स्वामी दयानन्द अपने गुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्दजी की सेवा में रहकर अध्ययन और साधना करते थे। एक दिन स्वामी दयानन्द ने कमरे की सफाई करके कूडाकर्कट दरवाजे के पास डाल दिया । संयोगवश उनके गुरु विरजानन्दजी कमरे से बाहर निकले तो वह सारा कूड़ाकर्कट उनके पैरों में लग गया । वे क्रुद्ध हो उठे और दयानन्दजी को खूब पीटा, जिससे उनके शरीर पर निशान पड़ गये। फिर भी स्वामी दयानन्दजी शान्त बने रहे। अपने अपराध के लिए गुरु से क्षमा माँगी। प्रसन्न होकर गुरु ने आशीर्वाद दिया । दयानन्दजी की पीठ पर मार की वह निशानी जीवन पर्यन्त बनी रही । पूछने पर स्वामी जी कहा करते-'यह गुरुकृपा की निशानी है।" यह था, गुरु द्वारा शिष्य के 'सु' या 'कु' होने का परीक्षाफल ! वास्तव में जो साधक अपना कल्याण चाहता है, वह इन सुख-दुःखों के द्वन्द्व में सम रहता है, वह गुरु के द्वारा की गई कठोर परीक्षा को अपने लिए परम हितकर समझता है । १ दशवै० ६।१।१३ २ उत्तरा० ११३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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