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कुशिष्यों को बहुत कहना भी विलाप
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उसे चारों ओर से घेर लिया। वनवासी सेना के बाणों से घबराकर राजा देवपाल सहायता के लिए सिद्धसेन की शरण में आये । उनसे उपाय पूछा। उन्होंने राजा को बहुत आश्वासन दिया और इसका प्रतीकार करने का वचन भी । सिद्धसेन ने स्वर्ण सिद्धि योग से विपुल द्रव्यराशि और सरसवमंत्र से विशाल सेना की सृष्टि की। उसकी सहायता से राजा देवपाल ने विजयवर्मा को पराजित कर दिया। देवपाल ने प्रसन्न होकर आचार्य सिद्धसेन को 'दिवाकर' पदवी प्रदान की। राजसभा में उनकी प्रतिष्ठा की। उनकी सेना में हाथी, घोड़े, पालकी आदि राजा की ओर से भेजे जाने लगे, सिद्धसेन भी इनका उपयोग खुलकर करने लगे।
. आचार्य वृद्धवादी (गुरु) को जब यह मालूम पड़ा कि सिद्धसेन अपनी साधुमर्यादा का अतिक्रमण कर रहे हैं, तब उन्हें प्रतिबोध देने के लिए वे वेष वदलकर कर्मारनगर पहुँचे । उन्होंने सिद्धसेन को पालकी में बैठकर जाते हुए अपनी आँखों से देखा । पालकी राजमार्ग से होकर जा रही थी। अनेक लोग उन्हें घेरकर जयध्वनि कर रहे थे । तब वृद्धवादी ने सामने जाकर कहा- “मैंने आपकी ख्याति बहुत सुनी है अतः मेरा एक संशय है, क्या आप उसे दूर करेंगे ?"
सिद्धसेन ने कहा- "हाँ हाँ, क्यों नहीं, आपका जो भी संशय हो पूछिए।" इस पर आचार्य वृद्धवादी ने शीघ्र ही एक गाथा अपभ्रंश भाषा में रचकर उनके समक्ष प्रस्तुत की
अणफुल्लो फुल्ल म तोडहु, मन आरामा म मोडहु ।
मणकुसुमेहिं अच्चि निरंजणु, हिंडइ काहं वणेण वणु॥ सिद्धसेन ने इस गाथा पर विचार किया, परन्तु ठीक अर्थ समझ में नहीं आया । अतः उन्होंने ऊटपटांग अर्थ करके कहा-"और कुछ पूछिए।"
वृद्धवादी ने कहा- "इसी पर पुनः विचार करके उत्तर दीजिए।" सिद्धसेन ने निरादरपूर्वक अंटसंट अर्थ किया, लेकिन वृद्धवादी ने उसे स्वीकार नहीं किया। सब सिद्धसेन ने आचार्य वृद्धवादी को ही उसका स्पष्टकरण करने को कहा। इस पर आचार्य वृद्धवादी ने उत्तर दिया-"यह मानवदेह जीवनरूप कोमल फूलों की लता है । इसके जीवनांशरूप कोमल अर्ध-विकसित फूलों को तुम राजसम्मान एवं तज्जन्य अभिमान के प्रहारों से मत तोड़ो। मन के यमनियमादि आरामों (उद्यानों) को भोगविलास (आराम) के द्वारा नष्टभ्रष्ट न करो। मन के सद्गुण-पुष्पों द्वारा निरंजन भगवान की अर्चना (पूजा) करो। सांसारिक लोभरूपी मोहवन में वृथा क्यों भटक
रहे हो ?'
गाथा का यह समुचित अर्थ सुनकर सिद्धसेन ने सोचा- "यह गाथा तो मुझ पर ही घटित हो रही है । मेरी भूलों को इस प्रकार कोमलकान्त पदावली से सुझाने वाले और मेरी त्रुटियों की भर्त्सना करने वाले हितैषी सद्गुरु के सिवाय और कौन हो सकते हैं ?"
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