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________________ विक्षिप्तचित्त को कहना : विलाप ३८३ मिल सकता । एकाग्रचित्त से सोचने पर डटा रह । इसी से जीवन का सच्चा सुख प्रत्येक कार्य में वफादारी, लगन, निष्ठा, उसे बाहर से कष्टप्रद दिखाई देने वाले कार्य जीवन से भागने वाले को कहीं सुख नहीं जिस मोर्चे पर तू नियुक्त है, वहीं दृढ़ता से मिलेगा । वस्तुतः एकाग्रचित्त व्यक्ति के कर्तव्य-तत्परता आजाती है, उसके कारण में भी आनन्द महसूस होता है ।" जवान को आँखें खुल गई, उसे जीवन की सही दिशा प्राप्त हो गई । अब उसे विक्षिप्तचित्त होकर अधिक भटकने की आवश्यकता न रही । विक्षिप्तचित्त दबा हुआ रहता है विक्षिप्तचित्त एक तरह से दबा हुआ रहता है, जो विरोधी हो जाता है, अच्छा काम बिलकुल नहीं कर पाता । उस दबे हुए चित्त-पात्र में भला कोई उपदेश - जल डालकर क्या करेगा ? इसलिए एक पाश्चात्य विचारक टायरन एडवर्डस (Tyron Edwards ) ने कहा है "There is nothing so elastic as the human mind. Like imprisoned steam, the more it is pressed, the more it rises to resist the pressure. The more we are obliged to do, the more we are able to accomplish.'' "मानवीय चित्त जैसा कोई लचीला पदार्थ दुनिया में नहीं है । बन्द किये हुए भाप की तरह ज्यों-ज्यों इससे दबाया जाता है, त्यों-त्यों यह दबाने वाले का बलपूर्वक सामना करने को उठता है । जितना हम करने के लिए बाध्य किये जाते हैं, उतने ही हम उसे पूर्ण करने के योग्य होते हैं । " मतलब यह है कि जब तक आप चित्त को सिर्फ दबाकर रखते हैं, तब तक दबा हुआ चित्त तेजी से विपरीत कार्य करने लगता है । पर यदि उसे हम किसी अभीष्ट कार्य में जोड़ दें और अच्छी तरह तन्मयतापूर्वक उस कार्य को करने के लिए मजबूर कर दें तो चित्त उस कार्य को सफलतापूर्वक पूर्ण करके छोड़ता है । सिर्फ दबाया हुआ चित्त विक्षुब्ध एवं विक्षिप्त हो जाता है, वह कोई भी काम भली-भाँति नहीं कर सकता, तब किसी के उपदेश या बोध को तो ग्रहण ही कैसे कर सकता है ? चित्त को विक्षिप्त होने से बचाने के उपाय चित्त को विक्षिप्तता या अस्थिरता से बचा लिया जाये तो उसमें शक्तियों का जागरण एवं संवर्धन हो सकता है । यदि वह विक्षिप्त, बिखरा हुआ या अस्थिर रहता है तो उसकी रही-सही शक्तियाँ भी नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है । इसलिए चित्त को विक्षिप्त होने से बचाने के लिए यह आवश्यक है कि आप चित्त की शक्तियों को नष्ट न होने दें। जब मनुष्य पर दुःख, विपत्ति, परेशानी या संकट आता है तो वह घबरा - कर धैर्य छोड़ बैठता है, मन ही मन परेशान, हैरान होकर कुढ़ता और घुटता रहता है, या चिन्ता करता रहता है । यही चित्त के विक्षिप्त होने का प्रथम कारण है । जब Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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