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________________ ३७२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ किसी काम में नहीं लगता, अथवा चित्त किसी बीमारी, पीड़ा, व्याधि या आधि के कारण उखड़ा हुआ है, उसका चित्त पाँचों इन्द्रियों में से किसी के भी विषय में अत्यन्त मुग्ध और लुब्ध है, उसके चित्त में कोई प्रेमिका बसी हुई है, या किसी विरोधी की हत्या करने, किसी के यहाँ चोरी-डकैती करने या किसी वस्तु को अपने कब्जे में करने की योजना में चित्त संलग्न है, उस समय वह अपने चित्त को घर या व्यवसाय के किसी काम में लगाना चाहता है, तब वह बिलकुल नहीं लगता, इसे ही शास्त्रीय परिभाषा में विक्षिप्तचित्त कहते हैं। वैसे विक्षिप्त पागल को भी कहते हैं। जैसे पागल आदमी किसी एक विचार, निश्चय या संकल्प पर स्थिर नहीं रह सकता, वह भी एक क्षण पहले कुछ सोचता है, क्षणभर बाद उस विचार से बिलकुल उलटे विचार करता है। इसी प्रकार विक्षिप्त चित्त वाला व्यक्ति भी पागल-सा, उद्विग्न, बहमी, झक्की या सनकी हो जाता है। विक्षिप्त अवस्था चित्त की एक भूमिका है, जहाँ चित्त चंचल और अस्थिर रहता है। जैसे किसी तालाब या नदी के शान्त पानी में ढेला या पत्थर डाला जाए तो वह पानी क्षुब्ध या चंचल हो उठता है, उसमें एक साथ कई लहरें उठती हैं, उस पानी में कोई यदि अपना प्रतिबिम्ब देखना चाहे तो नहीं देख सकता, इसी प्रकार चित्तरूपी शान्त-सरोवर में कोई व्यक्ति क्रोध-लोभ आदि विकारों के ढेले या पत्थर फेंके तो वह भी क्षुब्ध या चंचल हो उठता है, उसमें भी विकृतियुक्त विचारों की असंख्य तरंगें उठती हैं। इस प्रकार के चंचल तरंगयुक्त चित्त में कोई अपने आत्मस्वरूप का प्रतिबिम्ब देखना चाहे, अथवा अपने अभीष्ट कार्य का ठीक चिन्तन करना चाहे तो कभी नहीं कर सकता। ऐसा चित्त विक्षिप्तचित्त है, जिसमें एकाग्रता और शान्ति से, निराकुल एवं समत्वयुक्त-संतुलित होकर कोई भी अभीष्ट चिन्तन नहीं हो सकता। यही कारण है कि आध्यात्मिक साधना में सर्वप्रथम क्लिष्ट चित्तवृत्तियों के विरोध की बात कही गई है। योगसाधना का पहला पाठ चित्तवृत्ति के निरोध, चित्त की तन्मयता, एकाग्रता और समत्व से चलता है। चित्तवृत्ति एकाग्र एवं स्थिर हो जाने के बाद जो भी आध्यात्मिक या यौगिक साधना की जाती है, वह ठीक ढंग से चलती है, उसमें उत्तरोत्तर सफलता मिलती चली जाती है । इससे साधक का उत्साह, श्रद्धा और आत्मविश्वास बढ़ता है, वह आगे की भूमिका पर यथाशीघ्र आरूढ़ हो जाता है। योग के जो यम, नियम आदि आठ अंग हैं, उनमें भी सफलता या उनकी सफलतापूर्वक आराधना-साधना भी तभी हो सकती है, जब पहले चित्तवृत्ति एकाग्र और तन्मय हो । यदि चित्त अन्यमनस्क हो, दूसरी ओर संलग्न हो, किसी विकार में ग्रस्त हो, अथवा किसी आर्त्त-रौद्रध्यान में संलग्न हो तो यम, नियम आदि का पालन या साधना ठीक ढंग से नहीं हो सकती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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