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________________ परमार्थ से अनभिज्ञ द्वारा कथन : विलाप ३६६ चलता है, ताकि मनुष्यों को कुछ प्रकाश अवश्य मिले । उनके जीवन-पथ पर छाये अंधकार को यह मशाल मिटाकर प्रकाशित करेगी।" एक दिन एक भिक्षु ने उसके यह शब्द सुने तो मुस्कराकर बोला-मित्र ! अगर आपके नेत्र इस सर्वव्यापी सूर्य को नहीं देख सकते, वे ज्योति विहीन हैं, तो सारे संसार को अंधकारपूर्ण तो मत कहिए । फिर आपकी यह मशाल सूर्य के प्रकाश को क्या प्रकाश देगी ? और जो सूर्य को ही नहीं देख पा रहे हैं, वे तुम्हारी इस छोटी-सी मशाल को कैसे देख सकेंगे ?" . आज अनेक धर्मगुरुओं, उपदेशकों और अध्यात्मवेत्ताओं की मशालें इस विश्वआकाश में जलती दिखाई दे रही हैं । सभी का दावा है कि उनके अतिरिक्त अन्यत्र अन्य कोई प्रकाश ही नहीं है। इसलिए दूसरों को अध्यात्मज्ञान का प्रकाश देने या प्रकाश देने का दावा करने से पहले स्वयं अपने आपको प्रकाशित करो। आप स्वयं ज्ञान से प्रकाशित हो जाएँगे तो फिर योग्यपात्र को देखकर तत्त्वज्ञान देने में आपको कोई संकोच नहीं होगा। गीता में भी यही कहा है ___ "उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदशिनः ।" .. "वे तत्त्वदर्शी एवं ज्ञानी तुम्हें ज्ञान (अध्यात्मतत्त्वज्ञान) का उपदेश देंगे, उनके पास जाओ।" पहले स्वयं शास्त्रों के रहस्य को समझो तथागत बुद्ध का एक वाक्य है- 'अप्पदीपो भव' अपने स्वयं के दीपक बनो, तब दूसरों को अर्थबोध कराने का प्रयत्न करो । जैनशास्त्रों में जगह-जगह 'गीतार्थ' शब्द आता है । उसका अर्थ भी यही है कि जो स्थानांग, समवायांग आदि शास्त्रों का अर्थ, परमार्थ, रहस्यार्थ युक्ति-प्रयुक्ति और अनुभव से जान गया है, जिसने शास्त्र के अर्थों को आत्मसात् कर लिया है, दूसरे अगीतार्थ साधु उसी के निश्राय में रह सकते हैं, विचरण कर सकते हैं। ऐसा गीतार्थ अपने निश्रित विचरण करने वाले साधुओं को अध्यात्मज्ञान के विविध व्यावहारिक पहलू भी समझाता है। वह अनुभव और शास्त्रवचनों का समन्वय करके स्वयं चलता और दूसरों को चलाता है । इसीलिए महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र के द्वारा यह संकेत कर दिया है कि किसी को झटपट तत्त्वज्ञान या उपदेश देने की उतावल न करो, पहले स्वयं को खूब तैयार कर लो, शास्त्र वचनों का, अध्यात्मतत्त्वों का निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से गहन अध्ययन करो, तत्पश्चात् उसका सक्रिय आचरण करके अनुभव करो, तभी दूसरों को उसका बोध या उपदेश दो, अन्यथा अपरिपक्वदशा में दिया गया बोध व्यर्थ प्रलाप-मात्र होगा। बौद्धजगत् की एक कम्बोडियन कथा है। उसका सारांश यह है कि एक दिन कम्बोज सम्राट् तिङ मिङ् की राजसभा में एक बौद्धभिक्षु आया। कहने लगा"राजन् ! मैं त्रिपिटाकाचार्य हूँ, १५ वर्ष तक सारे बौद्धजगत का तीर्थाटन करके मैंने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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