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________________ परमार्थ से अनभिज्ञ द्वारा कथन :विलाप धर्मप्रेमी बन्धुओ ! ____ आज मैं कल की तरह एक अन्य सत्य का उद्घाटन करना चाहता हूँ, जो अध्यात्मजीवन के साधक के लिए पद-पद पर प्रहरी की तरह सहायक है । गौतमकुलक का यह बत्तीसवाँ जीवनसूत्र है। इसमें जिस सत्य का निर्देश महर्षि गौतम ने किया है, वह इस प्रकार है ___ 'असंपहारे कहिए विलावो' - "असंप्रधार यानी अर्थ निर्धारित न होने, परमार्थ से अनभिज्ञ होने की स्थिति में किसी को उपदेश देना विलाप तुल्य है।" अज्ञानी अज्ञानी का मार्गदर्शक : अनिष्टकर जगत में यह एक व्यावहारिक तथ्य है कि जो स्वयं किसी बात से अनभिज्ञ होता है, वह दूसरे को उस बात की जानकारी देने जाता है, तो हास्यास्पद होता है। लोग उसकी हँसी उड़ाये बिना नहीं रहते। कई बार व्यक्ति किसी बात की थोड़ी-सी जानकारी रखता है, तो वह अपने आपको बहुत बड़ा ज्ञानी मान बैठता है, उसके अल्पज्ञान का गर्व उसकी बुद्धि पर ऐसा पर्दा डाल देता है कि वह यह समझ नहीं पाता कि मैं अधूरे ज्ञान के बल पर दूसरों को मार्गदर्शन देने का दावा रखता हूँ, यह कितना गलत है, कितना अनर्थकर है ? उसकी अधूरी समझ, अधूरे अनुभव को पैदा करती है और अधूरा अनुभव जब पूर्ण होने का दावा करता है; तो ऐसा लगता है मानो एक छोटी-सी तलैया, समुद्र की समता कर रही हो। कहां समुद्र और कहाँ थोड़े से पानी से भरी तलैया ? अधकचरे ज्ञान का धनी दूसरों को ऊटपटांग उपाय बताकर अपनी हानि तो करता ही है, दूसरों की बहुत बड़ी हानि कर बैठता है । मंत्रशास्त्र का यह नियम है कि जिस व्यक्ति ने किसी मंत्र को विधिपूर्वक सिद्ध नहीं किया है, वह यदि दूसरे नये व्यक्ति को वह मंत्र जाप करने के लिए दे देता है, या उस मंत्र की अधूरी विधि बता देता है तो उससे मंत्र देने वाले का भी बहुत बड़ा अनिष्ट होता है और जो नौसिखिया व्यक्ति उस मंत्र का जाप करता है, अविधिपूर्वक जप करता है, उसका न तो वह उद्देश्य सिद्ध होता है, और न ही उसमें सफलता मिलती है। बल्कि ऐसे अविधियुक्त जाप से मंत्राधिष्ठित देव कुपित हो जाते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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