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अरुचि वाले को परमार्थ-कथन : विलाप
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एक नाट्यकलाप्रवीण नट ने नाटक का आयोजन किया। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती नाटक देख रहा था, उसी दौरान एक दासी पुष्पमाला, फूल का दड़ा वगैरह लेकर आई । ब्रह्मदत्त के मन में विकल्प उठा कि ये सब मैंने कहीं देखे हैं। यों बार-बार ऊहापोह करते-करते उसे जातिस्मरणज्ञान हो गया। अतः उससे पहले के पाँच जन्मों की घटना चलचित्र की तरह स्पष्ट दिखाई देने लगी । "पिछले जन्म में मैं और मेरा भाई दोनों सौधर्म देवलोक में देव थे। पर इस जन्म में पता नहीं, वह मेरा पांच जन्मों का साथी भाई कहाँ है ?" यों सोचकर ब्रह्मदत्त चर्की मूच्छित हो गया। होश में आते ही उसने अपने पाँच जन्मों के साथी भाई का पता लगाने हेतु डेढ़ श्लोक लिखा और उसके एक चरण की पूति करने वाले को इनाम देने की घोषणा की
दासा 'दसणे' आसी, मिया कालिंजरे नगे। हंसा मायंगतीराए, सोवागा कासिभूमिए ।
देवा य देवलोगम्मि आसी अम्हे महिड्ढिया। संयोगवश जातिस्मरण ज्ञानप्राप्त चित्त मुनि भी ब्रह्मदत्त राजा के नगर में मनोरम नामक उद्यान में पधारे हुए थे, वे कायोत्सर्गस्थ थे । वहीं रेहट चलाता हुआ एक किसान इस डेढ़ श्लोक को बार-बार पढ़ने लगा। उसे सुनकर ज्ञान में उपयोग लगाकर मुनि ने अपने पूर्वजन्म के भाई का वर्तमान स्वरूप जाना और उस श्लोक के पश्चाद्ध की इस प्रकार पूर्ति की
__इमाणो छट्ठिआ जाई, अण्णमण्णेण जा विणा ।
रेहट वाला किसान इस श्लोक की पूर्ति लेकर हर्षित होता हुआ ब्रह्मदत्त के · पास पहुँचा। श्लोक का पश्चार्द्ध सुनते ही भ्रातृस्नेहवश ब्रह्मदत्त मूच्छित हो गया।
राजसेवकों ने किसान को पकड़कर धमकाया, तब उसने सच्ची बात कह दी कि "हजूर ! इस श्लोक की पूर्ति मैंने नहीं, मनोरम उद्यानस्थ सुनि ने की है।" तब उसे छोड़ दिया। ब्रह्मदत्त सपरिवार मुनिवन्दन को गया । मुनि ने ब्रह्मदत्त राजा को अध्यात्मप्रेरक धर्मोपदेश दिया, जिसमें संसार की असारता, कर्मबन्ध के कारण, निवारणोपाय, मोक्षमार्ग आदि का वर्णन किया, जिससे उस सभा में स्थित कुछ लोगों को विरक्ति हुई, लेकिन ब्रह्मदत्त के मन पर लेशमात्र भी असर न हुआ। उलटे वह सांसारिक विषयभोगों तथा राज्यग्रहण आदि के लिए चित्तमुनि को आमंत्रित करने लगा। परन्तु मुनि तो अपने संयम में दृढ़ रहे, उन्होंने विविध प्रकार के कामभोगों की असारता समझाई, किन्तु ब्रह्मदत्त टस से मस नहीं हुआ । अन्त में मुनि यह कहकर वहाँ से चल पड़े कि
"राजन् ! आपको इतना समझाने पर भी भोगों का त्याग करने की बुद्धि नहीं
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