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________________ बुद्धि तजती कुपित मनुज को ३१६ अपने यतिधर्म से फिसल गए। यतिजी ने इस प्रयोग के लिए एक कालियार मृग मंगवाया और उसके सींगों में एक ताबीज पहनाया, जिसमें मेघ-बन्धन यंत्र डाल दिया। इसके वाद यति ने सेठ को हिदायत दी- "देखो, सेठ ! दुष्काल का नाम ओर फैल जाए और तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जाए, तब शीघ्र ही यह ताबीज निकाल लेना।" सेठ ने स्वीकार किया और कालियार मृग को एक सुरक्षित बाड़े में बंधवा दिया। पर सेठ को तो काम से काम था। काम होगया, यह बात सुनकर सेठानी अत्यन्त प्रसन्न हुई । उसयंत्र के कारण वर्षा न हुई। सेठ ने अपने पास जितना धन था, उससे घास की गंजियों एवं अनाज का संग्रह करवा लिया। यों तो सेठ पक्के कंजूस थे, पर आज सेठानी के मोह में पागल बनकर उदार हो गये थे। श्रावणमास बीत गया, पर वर्षा की एक बूंद भी नहीं पड़ी। अन्त में दुष्काल घोषित होगया। अनाज के भाव दुगुने-तिगुने होगए, पर जो सेठ के यहां अनाज माँगने आता, उसे वे फ्री देने लगे। परन्तु कुम्हार उनके यहाँ माँगने नहीं गया। परन्तु गाँव छोड़कर अन्यत्र जाने जैसा भी न रहा । कालियार मृग भी सेठ की असावधानी से खुल कर भाग गया । सेठानी को मनाने के बाद सेठ ने और बातों की परवाह न की। फलत: सारे काठियाबाड़ में दुष्काल का हाहाकार मच उठा । एक वर्ष में तो कुम्हार का घरबार, बर्तन भांड़े और गधे भी बिक गये। फिर भी सारे वर्ष भर वह अन्न मांगने नहीं आया। सेठानी को तब तक समाधान कैसे होता, जब तक कुम्हार उसके यहाँ अन्न माँगने न आए। उसके हृदय में तो अभी तक क्रोधविष का उफान भरा था। वह यंत्र कालियार मृग के सींगों में अभी बंधा ही पड़ा था, फलतः दूसरे वर्ष भी दुष्काल पड़ा । सेठ के मन में इसका कोई खेद नहीं था, न सहानुभूति ही रही। दुष्काल की करारी मार से बेचारा कुम्हार अब लाचार हो गया । उसका परिवार भूखा मरने लगा। रूपाली बा तो इसी प्रतीक्षा में थी कब कुम्हार आए और कब मैं अपने अपमान का बदला लेकर रोष उतारू। आखिर एक दिन नीचा मुंह किये कुम्हार मांगने आया- “रूपाली बा ! हमें भी कुछ दो। गरीब आदमी हैं।" पर रूपाली बा को देना कहाँ था; उसे तो जूता मारना था ! वह बोली- “तू तो कहता था न कि तुम्हारी जुआर तो गधे भी नहीं खाते । अब क्यों आया लेने ? भाग जा यहाँ से बदमाश !" यों कहते-कहते सेठानी ने उसके सिर पर ४-५ जूते लगा दिये। क्रोधमूर्ति सेठानी का हृदय अब ठण्डा हुआ। कुम्हार बोला-"बा ! दो वर्ष पहले समय और था, आज और है। मैंने आपको शत्र भाव से वे शब्द नहीं कहे थे, सिर्फ व्यवहार की बात कही थी।" पर यह सत्य कौन सुनता ! क्रोधमूर्ति सेठानी ने उसके जूते मारकर भी अनाज का एक दाना न दिया । बेचारा भूखा कुम्हार दिल में जलता हुआ निराश होकर चला गया। पाषाणहृदया सेठानी पर कुम्हार के दीन वचनों का कोई असर न हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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