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________________ ३०८ आनन्द प्रवचन : भाग ६ परिवार, समाज और राष्ट्र भी दुःखित होकर अशान्ति और अनिश्चिन्तता के झूले में झूलता रहता है। किसकी बुद्धि स्थिर नहीं रहती? स्थिरबुद्धि का इतना महत्व है, फिर भी लोग स्थिरबुद्धि नहीं पाते । अकसर लोगों की स्थिरबुद्धि समय पर पलायन कर जाती है । वे इस मुगालते में रहते हैं कि हम समय पर अपनी बुद्धि से सही निर्णय ले लेंगे परन्तु समय पर प्रायः वही बुद्धि धोखा दे जाती है । उसकी निश्चय करने की शक्ति कुण्ठित हो जाती है। प्रश्न होता है कि इस प्रकार की महत्वपूर्ण स्थिरबुद्धि एकाएक कुण्ठित और पलायित क्यों हो जाती है ? बस, इसी का उत्तर महर्षि गौतम ने इस जीवनसूत्र में बताया है "चएइ बुखि कुवियं मणुस्स" जो मनुष्य बात-बात में कुपित हो जाता है, क्षणिक आवेश में आ जाता है, जरा-सी बात में, तनिक-सी देर में उत्तेजित हो उठता है, उस व्यक्ति से (स्थिर) बुद्धि दूर भाग जाती है, उसकी बुद्धि उससे रूठकर छोड़ जाती है। स्थिर-बुद्धि भी पतिव्रता स्त्री की तरह उसी स्वामी के प्रति वफादार रहती है, जो कुपित, उत्तेजित और आवेशयुक्त नहीं होता । जो व्यक्ति समय पर अपने आप को वश में नहीं रख सकता, अपने आपे से बाहर हो जाता है, तब उसकी स्थिर-बुद्धि भी शीघ्र ही उसके मस्तिष्क से खिसक जाती है। वास्तव में स्थिर-बुद्धि का कार्य है-स्वयं सही निर्णय करना । यथार्थ निर्णय के अधिकार का प्रयोग तभी हो सकता है, यदि उसके अधीन कार्य करने वाली प्रज्ञा (स्थिर-बुद्धि) उसके वश में हो । और प्रज्ञा स्थिर होती है, आत्मसंयम से । जब मनुष्य आत्मसंयम खो बैठता है, बात-बात में आवेशयुक्त होकर अपने पर काबू नहीं रखता, तब उसकी प्रज्ञा स्थिर न रहे यह स्वाभाविक है। एक पाश्चात्य विचारक एम. हेनरी (M. Henry) ने भी इस बात का समर्थन किया है “When passion is on the throne, reason is out of doors.'' 'जब आवेश सिंहासन पर बैठा होता है, तब सूझ-बूझ दरबाजों के बाहर निकल जाती है।' इसीलिए भगवद्गीता में कहा है 'नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।' जो समत्व योग से युक्त नहीं है, उसके बुद्धि (स्थिर प्रज्ञा) नहीं होती और न ही उस अयुक्त में कोई सहृदयता, दया आदि की भावना होती है। निष्कर्ष यह है कि आत्मसंयम के बिना मनुष्य अपनी प्रकृति और वृत्ति-प्रवृत्ति को अंकुश में नहीं रख सकता; और ऐसी स्थिति में ही मनुष्य अपनी निर्णयशक्ति को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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