SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६० आनन्द प्रवचन : भाग ६ समभावी बनाले, और इसे वश में कर ले तो यहीं स्वर्ग उतर आएगा। परन्तु मनुष्य अतिस्वार्थी बनकर झूठे मद और मोह में ग्रस्त होकर इस संसार को नरक-सा बनाये हुए हैं। अगर मनुष्य स्वार्थवृत्ति छोड़ दे और परमार्थवृत्ति से सोचे, संसार की सामग्री का उपभोग अकेला ही करने की न सोचे, सबको अपना कुटुम्बी समझे, सबसे हिलमिलकर प्रेम से रहे तो यह संसार आज स्वर्ग बन सकता है । घर-घर में स्वार्थ का साम्राज्य परन्तु अफसोस है, आज तो घर-घर में स्वार्थ का साम्राज्य छाया हुआ है। एक कवि इसी स्वार्थी जमाने की हवा का वर्णन करते हुए कहता है किससे करिये प्यार, यार ! खुदगर्ज जमाना है ॥ध्र व॥ भाई कहे भुजा तुम मेरी, मैं सच्चा गमख्वार । जर, जमीन, जन के झगड़ों पर, बना वही खूख्वार । मुकदमा उसी ने ठाना है यार खुदगर्ज" ॥ स्त्री कहे प्राण तुम मेरे, जीवन के आधार । धन, सन्तान नहीं होने से, हुई विमुख घरनार । हुआ अपना बेगाना है ।यार खुदगर्ज ॥ पुत्र कहे तुम ताज हो मेरे, मैं फरमांवरदार। ब्याह हुआ तब आँख दिखाई, अलग किया व्यवहार। ना फिर आना और जाना है।यार खुदगर्ज ॥ मित्र कहे मैं जन्म का साथी, तुम मेरे दिलदार। संकट पड़े बात नहीं पूछे, किया यार को रुवार । ना फिर मुंह भी दिखलाना है ॥यार खुदगर्ज ॥ जब घरवालों की यह गति है, सब है मतलबदार। बाहर वालों की क्या गिनती, उनकी कौन शुमार? मोह करना दुःख पाना है ॥यार खुदगर्ज ॥ कितना मार्मिक तथ्य कवि ने उजागर कर दिया है ! वास्तव में इसी स्वार्थ, खुदगर्जी या मतलबीपन के कारण आज परिवारों में नरक का ताण्डव मचा हुआ है। ऐसे स्वार्थमग्न परिवार अपने पड़ोसियों और समाज में भी अपने स्वार्थ का जहर फैलाते हैं। अपने पड़ौसी के साथ भी उनका व्यवहार अत्यन्त मूढ़ स्वार्थ का होता है। - एक मारवाड़ी कहावत है-"काम को बखत काकी, नीकर मुकै हांकी" पड़ोस की किसी महिला से काम हो तो उसे काकी (चाची) कहकर बुलायेंगे, परन्तु काम होते ही उसे टरका देंगे । एक पाश्चात्य लेखक हटली (Whatley) कहता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy