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________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप : ३ २८१ उसे संकेत करते हैं, उसे देखकर छोटे-छोटे तारे झिलमिलाते हैं, उसकी प्रीति को बाँटना चाहते हैं । परन्तु अपने ध्येय की ओर उन्मुख कुतुबनुमा की सुई भूलकर भी कभी दूसरी ओर नहीं देखती । उसी तरह साधक को भी अपने ध्येय मोक्ष के प्रति प्रयत्न के अतिरिक्त अन्य सांसारिक, भौतिक प्रलोभनों की ओर नहीं झुकना चाहिए । सच्ची दिशा में प्रयत्नशीलता ही यतना है | यतना का छठा अर्थ : जय पाना मूल में 'जयंत' शब्द है । संस्कृत में उसके दो रूप होते हैं - यतन्तं तथा जयन्तं । इसे जयणा – जयना भी कहा गया है, उसका अर्थ कल्पसूत्र टीका में किया गया है - 'जयना जयनशीलायां गत्यां' अर्थात् जिसकी गति जयनशील हो, उसे जयना कहते हैं । जयशील गति उसी की हो सकती है, जो इन्द्रियों और मन का गुलाम न बनकर सदैव उन पर विजयी बनकर रहता हो । विजयी की गति में और पराजित की गति में बहुत अन्तर होता है । निर्भयता और निश्चिन्तता के साथ वही साधक गति कर सकता है, जो विघ्न-बाधाओं से हार न खाता हो, संकटों से पराजित न होता हो, परिषह सेना से सदा जूझता हो, आत्मा के कामक्रोधादि शत्रुओं से सदैव संघर्ष करता रहता हो, पापकर्मों को सदैव पछाड़ देता हो । जो दुर्बल मनोवृत्ति का साधक होता है, वह इन संकटों और बाधाओं को देखते ही हार खा जाता है, परिषहों के सामने हथियार डाल देता है, काम-क्रोधादि रिपुओं के साथ संघर्ष में हमेशा पराजित हो जाता है, पापकर्म उसके मनोबल को सदैव चुनौती देते रहते हैं । वह जीवन संग्राम में जयनशील नहीं रहता । जीवन संग्राम में सदैव विजयी बनकर आगे बढ़ने के लिए एक साधक प्रभु से प्रार्थना करता है बढ़ने का बल दे दो, चाहे पथ आसान न हो । विघ्नों बाधाओं के सागर, उमड़ पड़ें चाहे मेरे पर । सबको पल में करूँ पराजित, विजयी का बल दे दो । चाहे जय पर अभिमान न हो | बढ़ने नियमों पर होऊँ न्यौछावर, प्राणों का हो मोह न तिल भर । वीरों का सा साहस रखकर, मरने का बल दे दो । उसमें भय का अभिमान न हो | बढ़ने ... मानवता से ऊपर उठकर, बनूं सभी का स्वार्थ छोड़कर । परम अर्थ में लीन रहूँ मैं, परमार्थी बल दे दो । चाहे तन का सम्मान न हो | बढ़ने .... कवि ने जयनशील साधक की भावोर्मियों को यथार्थता के धरातल पर अंकित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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