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आनन्द प्रवचन : भाग ६
__ आज के गृहस्थ और साधु भी काया और काया से सम्बन्धित सामान को बचाने में तो लगे हुए हैं, लेकिन काया के मालिक आत्मा के जतन के विषय में कोई विचार ही नहीं है । इसीलिए दशवैकालिक सूत्र में कहा है
अप्पा खलु सततं रक्खियम्बो,
सविन्दिएहिं सुसमाहिएहि । ---चूलिका २ शरीर का जतन कहाँ तक ?
प्रश्न होता है, आत्मा की रक्षा की तो कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि आत्मा तो स्वयं अजर, अमर, अविनाशी है, फिर आत्मा की रक्षा के लिए कहने का आशय क्या है ? बात यह है कि आत्मा अजर-अमर होते हुए भी जब वह आत्मा से भिन्न विजातीय द्रव्यों- क्रोधादि से लिप्त हो जाती है, पापकर्मों से लिप्त हो जाती है, तब वह अरक्षित हो जाती है। इसलिए उसकी सुरक्षा का अर्थ है—आत्मा को क्रोधादि विजातीय द्रव्यों-रागादि रिपुओं से विनष्ट होने से बचाना ।
इस पर भी एक बात अवश्य समझ लेनी है कि आत्मा की रक्षा के लिए धर्म-पालनार्थ शरीर और मन को भी स्वस्थ और सशक्त रखना आवश्यक है परन्तु साथ ही साधक को यह भी देखना है कि जहाँ शरीर धर्म से विमुख हो रहा है, उत्पथ पर जा रहा है, इन्द्रियविषयासक्ति का बेसुरा राग छेड़ रहा है, अथवा धर्मपालन के लिए बिलकुल अशक्त और लाचार हो गया है, वहाँ साधक शरीर को या तो धर्म के पुनीत मार्ग पर लाने का प्रयत्न करे या वह शरीर पर से ममत्व छोड़ दे, इसे सहर्ष विसर्जन कर दे, अर्थात् शरीर और आत्मा दोनों में से एक की सुरक्षा (जतन) करने का प्रश्न हो, वहाँ शरीर को छोड़कर आत्मा की सुरक्षा करे ।
वास्तव में शरीर एक प्रकार का वाद्ययन्त्र है। इसे ठीक ढंग से वही बजा सकता है, जो यतनाशील साधक हो। अन्यथा अगर वह इस बाजे के तारों को अत्यन्त कस देगा तो तार टूट जाएँगे, सुरीला स्वर नहीं निकलेगा, और यदि वह इस बाजे के तारों को अत्यन्त ढीला छोड़ देगा, विषयभोगों में रमण करने की खुली छूट दे देगा तो भी इसमें से आध्यात्मिक सुखद संगीत नहीं निकलेगा। इसलिए साधक कठोर बनकर शरीर को अत्यन्त भूखा-प्यासा, या अतिकठोर चर्या में रखेगा तो भी धर्मपालन नहीं कर सकेगा और शरीर को इन्द्रियविषयभोगों में खुलकर खेलने की छूट दे देगा, तो भी धर्मपालन नहीं हो सकेगा। इसलिए साधक को इन दोनों अतियों से बचकर इसका सन्तुलन रखना होगा। अगर शरीररूपी वाद्य को अनाड़ी यतनाशील साधक बजाने जाएगा तो यह नहीं बजेगा । संत कबीर ने ठीक ही कहा है
कबीरा यन्त्र न बाजइ, टूटि गए सब तार ।
यन्त्र बिचारा क्या करें, चला बजावनहार ॥ वास्तव में शरीररूपी वाद्ययंत्र, अपने-आप में जड़-अचेतन है, इसको बजाने
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