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________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप : ३ धर्मप्रेमी बन्धुओ! ___ आज मैं आपके समक्ष उसी अट्ठाईसवें जीवनसूत्र पर यतना के विविध रूपों का विश्लेषण करूंगा। यतना एक ऐसा शब्द है, जिस पर विविध पहलुओं से जितना विचार किया जाए, थोड़ा है। यह एक प्रकार की जैनयोग साधना है। साधुजीवन के प्रारम्भ से लेकर अन्त तक इसकी साधना चलती है। साधु चाहे बालक हो, युवक, वृद्ध हो, बाह्य शिक्षण की दृष्टि से चाहे कम पढ़ा-लिखा हो या अधिक, शरीर से पुष्ट हो या दुर्बल सभी अवस्थाओं में सर्वत्र यतना की साधना तो उसे अवश्यमेव करनी पड़ती है । मुनिदीक्षा लेते समय प्रत्येक साधक के माता-पिता या अभिभावक उसे हार्दिक आशीर्वाद देते हुए उससे आजीवन यतना-युक्त जीवन-यापन करने की अपेक्षा रखते हैं । देखिए भगवती-सूत्र में जमालि की दीक्षा के समय उनकी माता के उद्गार "घडियध्वं जाया ! जइयव्वं जाया, परक्कमियव्वं जाया ! अस्सि च णं अट्ठ णो पमाए।" 'हे पुत्र ! तू संयमपालन की चेष्टा करना, तू यतनापूर्वक जीवनयापन करना, पुत्र ! तू संयम में पराक्रम करना । इस बात में जरा भी प्रमाद न करना।' साधु के निष्पाप जीवन का मूल : यतना साधु से यावज्जीवन यतनावान बनने की अपेक्षा इसलिए रखी जाती है कि उसका जीवन सदैव निष्पाप, निरवद्य, निरुपाधिक, निर्द्वन्द्व, निःसंग, निष्कषाय एवं निर्लेप होना चाहिए। और इस प्रकार का जीवन तभी बन सकता है, जब साधु के जीवन में प्रतिपद और प्रतिक्षण यतना श्वासोच्छ्वास की तरह व्याप्त हो । यतना साधु के जीवन में नहीं होगी तो उसका जीवन निष्पाप एवं निष्कलुष नहीं रह सकेगा। इसीलिए गौतम ऋषि को कहना पड़ा चयंति पावाइं मुणि जयंतं जो मुनि यतनावान है, उसे पाप छोड़ देते हैं, पाप उसके पास नहीं फटकते । प्रकारान्तर से कहें तो यतनावान मुनि का जीवन निष्पाप रह सकता है। निष्पाप जीवन जीने के लिए साधक के समक्ष यतना के दो रूप हैं-एक है विधेयात्मक और दूसरा है—निषेधात्मक। एक है—संयमधर्म में यतनापूर्वक प्रवृत्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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