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________________ यत्नवान मुनि को तजते पाप : २ २४५ सम्बन्धी ४२ दोषों को वजित करके लेना और उपभोग करना भी विवेकपूत होने के कारण यतना है । मतलब यह है कि आहारादि के विषय में क्या खाना-इतना ही विवेक पर्याप्त नहीं है, अपितु कैसे खाना, कितना खाना, कब खाना, किस दृष्टि से खाना, किन नियमों से मिले तो खाना ? इत्यादि विवेक भी आवश्यक है। अब आइए नीहार के सम्बन्ध में विवेक पर । जैसे आहार के विवेक के सम्बन्ध में साधक को सैकड़ों हिदायतें दी गई हैं, वैसे ही नीहार के विषय में भी। मलोत्सर्गक्रिया ठीक न होने से या कोष्ठबद्धता होने से अथवा नियमित समय पर मलविसर्जन न करने से अपानवायु दूषित होती है, उससे बबासीर, भगंदर, चर्मरोग आदि अनेक व्याधियाँ हो जाती हैं । मलोत्सर्गक्रिया ठीक न होने से पेट भारी-भारी रहता है, मानसिक प्रसन्नता नहीं रहती और न ही बौद्धिक श्रम ठीक होता है। उससे आलस्य, जड़ता और बुद्धिमन्दता होती है। शास्त्र में महाव्याधियों के कारणों में इन कुदरती हाजतों का रोकना भी एक कारण बताया गया है । शास्त्र में तो इन प्राकृतिक आवेगों को रोकने का जगह-जगह निषेध किया है । दशवैकालिक सूत्र में साधक को गोचरी जाते समय आवेगों को रोकने का स्पष्ट निषेध किया है “गोयरग्गपविट्ठोउ वच्चमुत्त न धारए" इसलिए आहार की तरह नीहार सम्बन्धी विवेक भी यतना से सम्बन्धित है । वेगनिरोध महारोग का कारण होने से उसका विवेक न करने पर दूसरों से सेवा लेने, पराधीन बन जाने तथा चिकित्सा में आरम्भ-समारम्भवृद्धि का पाप बढ़ जाने की संभावना है। विहार को भी शास्त्रकारों ने यतना (विवेक) की कसौटी पर कसा है । विहार का अर्थ है—नियमित उठने-बैठने, सोने-जागने की चर्या । जिस प्रकार एक साथ अत्यधिक खा लेना सब प्रकार से हानिकर है वैसे ही एक साथ अत्यधिक बैठे रहना, खड़े रहना, सोते रहना या जागते रहना, अत्यधिक घूमते रहना या बहुत ज्यादा भ्रमण करना भी स्वास्थ्य, शान्ति और संयम की दृष्टि से हानिकर है, यह अयतना है। इन सब क्रियाओं को अत्यधिक करने से या तो अग्निमन्दता आ जाती है, या जीवनीशक्ति क्षीण होती है। वास्तव में प्रत्येक क्रिया के साथ विवेक और संतुलन होना आवश्यक है। शास्त्रकारों ने जगह-जगह इन क्रियाओं में संतुलन और विवेक रखने का संकेत किया है । इन सब क्रियाओं को यतनापूर्वक (विवेक और संतुलनपूर्वक) न करने से रोगोत्पत्ति, परवशता, स्वास्थ्य और शक्ति का नाश आदि होते ही हैं, फिर आरम्भ, आर्तध्यान आदि पापों में वृद्धि होनी भी स्वाभाविक है। विहारचर्या में दैनिकचर्या से सम्बन्धित सभी बातें आ जाती हैं। जैसे अत्यधिक मात्रा में उठने-बैठने, सोने-जागने आदि का निषेध किया गया है, वैसे ही अविवेकपूर्वक उठने-बैठने, सोने-जागने आदि का भी निषेध है । आरोग्यशास्त्र की दृष्टि से साधक के लिए विधिवत् न बैठना, झुककर या अकड़कर बैठना अथवा रीढ़ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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