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आनन्द प्रवचन : भाग ६
"बाहर से प्राणी मरे या न मरे--जीता रहे, लेकिन जो अयत्नापूर्वक आचरण करता है, उसे (भाव) हिंसा निश्चित (अवश्य) ही लगती है। इसके विपरीत जो यतनाशील है, ईर्यासमिति आदि पूर्वक प्रवृत्ति करता है, उसे बाह्य (द्रव्य) हिंसा होने मात्र से कर्मबन्धन नहीं होता।" इसका कारण यह है कि जो यत्नापूर्वक क्रिया करता है, उसकी भावना हिंसा करने की कतई नहीं है, लाचारीवश हिंसा हो जाती है, पर वह द्रव्यहिंसा, उसके लिए पापकर्मबन्धक नहीं होती। यही बात कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में कही है। प्रवचनसार में यत्नाचारी को पापकर्मबन्ध न होने का कारण बताया है
चरदिजदं जदिणिच्चं, कमलं व जले णिरुवलेवी। जो साधक हमेशा प्रत्येक कार्य यतनापूर्वक करता है, वह जल में कमल की भाँति निर्लेप रहता है। पापकर्म से वह लिप्त नहीं होता। इसी कारण जैनसाधुओं को निष्पाप जीवन जीने के लिए यतना अनिवार्य बताई है। यतना की चतुर्विध विधि
प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ यतना की विधि बताते हुए उत्तराध्ययन में उसके ४ प्रकार बताये गये हैं(१) द्रव्य से
(२) क्षेत्र से (३) काल से और
(४) भाव से द्रव्य से यतना है—आँखों (हृदय की आँखों) से भूमि या परिस्थिति देखना, क्षेत्र से—युगमात्र (चार हाथ प्रमाण) भूमि देखना (गमन के सिवाय अन्य क्रियाओं के विषय में कौन-सा क्षेत्र है ? यह विवेक करना), काल से-जब तक भ्रमणादि क्रिया करणीय हो तब तक ही वह क्रिया करना, समय का विवेक करना। भाव से—उस क्रिया में उपयुक्त दत्तचित्त होकर करना । प्रत्येक क्रिया को यतना की इस चतुर्विध कसौटी पर कसकर करना चाहिए।
जयणा का अर्थ संक्षेप में इतना ही समझना चाहिए कि साधक के जीवन की प्रत्येक छोटी-बड़ी प्रवृत्ति भावक्रियात्मक होनी चाहिए । जो भी क्रिया वह करे, उसमें उसका मन उपयुक्त-जुड़ा हुआ होना चाहिए । साधक चले तो उसका मन चलने में संलग्न रहे, साधक बैठे तो उसका मन बैठने में रहे, साधक बोले, सोए, जागे, खाए-पीए या स्वाध्याय करे, उपदेश दे, अथवा भिक्षाचारी करे या कोई भी
१ दव्वओ, खेत्तओ चेव कालओ भावओ तहा ।
जयणा चउम्विहा वुत्ता, तं मे कित्तयओ सुण ॥७॥ दव्वओ चक्खुसा पेहे, जुगमित्त च खेत्तओ। कालओ जाव रीएज्जा, उवउत्त य भावओ ।।८।।-उत्तराध्ययन सूत्र, अ० २४
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