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________________ २३० आनन्द प्रवचन: भाग ६ हाँ तो, यतना यानी क्रिया में मन की उपयुक्तता । किसी भी प्रवृत्ति के विषय में मन आत्मा के प्रति वफादारीपूर्वक इस प्रकार विश्लेषण करने के बाद ही उस प्रवृत्ति को करने का आदेश देगा । मानलो कि साधु के जाने के रास्ते में हरी वनस्पति उगी हुई है, या सचित्त जल चारों ओर फैला हुआ है, अग्नि जल रही है या मूसलाधार वर्षा हो रही है; ऐसी स्थिति में साधु अगर अभीष्ट कार्य के लिए कहीं जाएगा तो उसके अहिंसा महाव्रत में आँच आएगी, परन्तु उस रास्ते के सिवाय और कोई रास्ता वहाँ जाने का नहीं है, या और कोई चारा नहीं है, उसे बड़ी नीति की हात हो गई है कि वर्षा में जाने के सिवाय और कोई चारा नहीं है, तब शास्त्रकार वहाँ यत्नाचार की बात कहते हैं । अर्थात् साधु वहाँ जाएगा अवश्य, लेकिन जाएगा यत्नाचारपूर्वक ईर्यासमितिपूर्वक देखते हुए जाएगा। जैसा कि दशवैकालिक सूत्र में कहा है "" " सइ अन्नण मग्गेण, जयमेव परक्कमे । " पुरओ जुगमायाए पेहमाणो महिं चरे ।" "चरे मंदमणुविग्गो अवक्खित्तरेण चेयसा । " और कोई मार्ग न हो तो उसी मार्ग से यतनापूर्वक जाए । सामने युगमात्र ( चार हाथ प्रमाण ) भूमि को देखता हुआ चले । साधु भिक्षा का समय होने पर हड़बड़ी किये बिना, अनुद्विग्न होकर अव्यग्रचित्त से धीरे-धीरे चले । इस प्रकार एक गमनक्रिया के पीछे जहाँ सैकड़ों 'ना' हैं, वहाँ अमुक 'हाँ' भी हैं । गमनक्रिया के विषय में कहा गया है, वैसे ही खड़ा रहने, बोलने, बैठने, सोने, जागने, भोजन करने, भिक्षा करने, व्याख्यान देने, विहार करने, नीहार करने आदि प्रत्येक क्रिया या प्रवृत्ति के विषय में साधु यतना को टार्च की तरह साथ रखेगा । यतना साधु के लिए प्रकाश है, मार्गदर्शक है, वह उसको कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर ले जाने वाली है । इसीलिए प्रतिमाशतक में यतना के विषय में कहा है जयह धम्मस्स जणणी, जयणा धम्मस्स पालणी चेव । तववुढिकरी जयणा, एगंत सुहावहा जयणा ॥५०॥ जयणा वट्टमाणो जीवो सम्मत्त-नाण-चरणाणं । सद्धाबोहासेवणभावेणाऽऽराहगो भणिओ ॥५१॥ साधक जीवन की प्रत्येक क्रिया — प्रवृत्ति में यतना धर्म की जननी है, यतना ही धर्म की रक्षिका है, यतना अनायास ही तप की वृद्धि कर देती है, और यतना ही संयमो जीवन के लिए एकान्त सुख देने वाली है । - " यमनं यतः, तद्विद्यते यस्य स यतः ।" ' यतमाने' – उत्तराध्ययन । “उपयुक्त' आवश्यक । “यतं चरेत्—— सूत्रोपदेशेन ईर्यासमितः ।" "उपयुक्तस्ययुगमात्र दृष्टत्वे -- आचारांग श्रु० २, अ० ३, उ० १ Jain Education International For Personal & Private Use Only 11 - www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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