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________________ आनन्द प्रवचन : भाग ६ वह करती हूँ, इसलिए अपवित्र नहीं हूँ । परन्तु इस रास्ते से अभी एक कृतघ्न मनुष्य गया है, वह अत्यन्त अपवित्र है । उसके पैरों से लगकर गिरे हुए रजकण कहीं मेरे न लग जाएँ, इसलिए भूमि पर जल छींटती हुई चल रही हूँ । वास्तव में कृतघ्न पुरुष ही महा अपवित्र एवं निन्द्य होते हैं । २०२ कहना न होगा, ऋषि का मनःसमाधान चाण्डालिनी की तात्त्विक बात सुनकर हो गया और वे अपनी भूल के लिए क्षमा माँगकर आगे बढ़ गए । कुत्त े, सर्प, सिंह आदि से भी नीच : कृतघ्न लौकिक व्यवहार में लोग कुत्त े को नीच मानते हैं, परन्तु शेखसादी कहते हैं "एक स्वामिभक्त कृतज्ञ कुत्ता भी कृतघ्न मनुष्य से अच्छा है । " एक बार एक कवि ने कुत्ते को चिन्तित देखकर आश्वासन देते हुए कहाशोकं मा कुरु कुक्कुर ! सत्त्वेष्वहमधम इति मुधा साधो ! दुष्टावपि दुष्टतरं दृष्ट्वा श्वानं कृतघ्ननामानम 11 “दुष्ट से भी दुष्टतर कृतघ्न नाम के कुत्ते को देखकर भले आदमी ! तू व्यर्थ शोक मत कर कि मैं प्राणियों में सबसे अधम हूँ ।" वास्तव में स्वामिभक्त असली कुत्ते से कृतघ्न कुत्ता ज्यादा खतरनाक है । कुत्ता ही क्यों, सांप जैसा क्रूर प्राणी भी उपकारी का उपकार नहीं भूलता और किसी न किसी रूप में कृतज्ञता प्रगट करता है । एक जगह कुछ ग्रामीण एक सांप को मार रहे थे, तभी उधर से आ पहुँचे सन्त एकनाथ । यह देखकर वे बोले – “भाइयो ! इसे क्यों मार रहे हो, छोड़ दो इसे । कर्मवश सांप की योनि मिली है इसे, यह है तो आत्मा ही ।" एक युवक ने कहा - " आत्मा है तो फिर काटता क्यों है ?" एकनाथ ने कहा- - " तुम लोग इस सर्प को न मारो तो यह तुम्हें क्यों काटेगा ?” लोगों ने एकनाथ के कहने से उस सर्प को छोड़ दिया । कुछ दिनों बाद एक दिन रात को एकनाथ अंधेरे में नदी स्नान करने जा रहे थे। तभी उन्हें सामने फन फैलाए खड़ा वह सर्प दिखाई दिया । उन्होंने उसे बहुत हटाना चाहा, मगर वह टस से मस न हुआ । एकनाथ मुड़कर दूसरे घाट पर स्नान करने चले गए । उजाला होने पर लौटे तो देखा कि वर्षा के कारण वहाँ एक गहरा खड्ड हो गया है । अगर उस सर्प ने न बचाया होता तो एकनाथ कब के ही उसमें समा चुके होते । गिद्ध, जो मांसाहारी पक्षी हैं, वे भी उपकारी के प्रति प्रत्युपकार करना नहीं भूलते । एक बार वाराणसी में एक जगह दो बड़े गिद्ध अत्यन्त कष्टदायक अवस्था में थे । एक सौदागर को उन पर दया आई। वह उन्हें एक सूखी जगह में ले गया और For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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