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________________ १७८ आनन्द प्रवचन : भाग १ उत्तमांग है, इसके कारण जीवन की गतिविधियां ठीक रूप में होती हैं । सत्य के कारण सत्यनिष्ठ व्यक्ति को भौतिक लक्ष्मी और प्रतिष्ठा कैसे मिलती है ? इसके लिए एक ऐतिहासिक उदाहरण लीजिए ____ महणसिंह देवगिरि दौलताबाद के सेठ जगतसिंह जी का पुत्र था। वह सत्यनिष्ठ था। जीवन में कभी असत्य बोलने, आचरण करने और असत्य विचार उसने नहीं किया था। उसके प्रबल पुण्य से उसके पास सम्पत्ति भी पर्याप्त थी। इसका कारण था सत्यप्रिय महणसिंह ने दिल्ली जाकर अपना कारोबार बढ़ाया । सत्य के प्रभाव से उसका व्यवसाय भी खूब चला, कीर्ति भी खूब फैली। समाज में उसकी प्रतिष्ठा भी काफी थी। थोड़े ही समय में सेठ महर्णासह की गणना लखपतियों में होने लगी। दिल्ली के सिंहासन पर उस समय फिरोजशाह का शासन था। कुछ ईर्ष्यालु । चुगलखोरों ने राजा के कान भरे– 'हजूर ! महणसिंह को सभी सत्यावतार कहते हैं, परन्तु हमें तो ऐसा कुछ मालूम नहीं होता। इसने यहाँ आकर लाखों रुपये कमाये हैं । परन्तु राजकोष में शायद ही कुछ धनराशि देता होगा । देता होगा तो भी मामूली रकम देता होगा। आपको इधर भी ध्यान देना चाहिए। यह बनिया नाहक अभिमान में फटा पड़ता है।' राजा ने पूछा-'महणसिंह के पास कितनी पूंजी होगी?' चुगलखोर ने कहा-'हजूर ! दस लाख से कम नहीं होगी।' यह सुनकर राजा की आँखें कठोर हो गईं। उन्होंने फौरन अपने विश्वस्त सेवक को आदेश दिया'जाओ सेठ महणसिंह को यहाँ बुलाकर ले आओ। कहना-राजाजी ने आपको याद फरमाया है।' सेवक से समाचार मिलते ही महणसिंह फौरन राज दरबार में पहुँचे और विनयपूर्वक प्रणाम करके राजा के सामने खड़े हो गये। राजा ने पूछा-'कहो, महणसिंह ! आजकल व्यापार कैसा चलता है ?' महणसिंह ने कहा-'हजूर ! एकदम अच्छा चल रहा है व्यापार । जहाँ भी हाथ डालता हूँ, वहीं पौबारा पच्चीस हो जाता है। आपकी दया से खूब कमाया है।' राजा बोले-'कितना कमाया है ? दस लाख या पन्द्रह लाख ?' महणसिंह-'राजन् ! अनुमान से तो कैसे कह सकता हूँ ? आप कहें तो कल मैं पूरा हिसाब देखकर आपको सही-सही बता दूंगा।' राजा-'अच्छा, ऐसा ही करो। परन्तु इसमें जरा भी झूठ हुआ या तुमने असलियत छिपाई तो उचित नहीं रहेगा।' ___ महणसिंह–'हजूर ! जन्म धारण करके आज तक तो मैंने झूठ नहीं बोला। अब असत्य क्यों बोलूंगा?' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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