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सत्यनिष्ठ पाता है श्री को : २ धर्मप्रिय बन्धुओ !
कल मैंने छब्बीसवें जीवनसूत्र पर विवेचन किया था। आज उसी जीवनसूत्र के अवशिष्ट पहलुओं पर विस्तार से अपने विचार प्रकट करूंगा। सत्य : समस्त 'श्री' का मूलस्रोत
गौतम महर्षि ने इस जीवनसूत्र में बताया है कि जिस व्यक्ति का मन, वचन, शरीर, अन्तःकरण, बुद्धि आदि सब सत्य की सेवा में स्थित हैं, उसे सब प्रकार की श्री प्राप्त होती है । श्री केवल एक प्रकार की ही नहीं होती । आप लोग चाहे लौकिक दृष्टि से भौतिक श्री (लक्ष्मी) को महत्त्व देते हों, परन्तु वीतराग-उपासक श्रमण केवल भौतिक श्री को ही महत्त्व नहीं देते । वे आध्यात्मिक श्री को ही अधिक महत्त्व देते हैं । जब वे आध्यात्मिक श्रीसम्पन्न होकर, आध्यात्मिक वैभव से परिपूर्ण होकर विचरण करते हैं तो भौतिक श्री या लौकिक वैभव तो स्वतः उसके पीछे दौड़ा आता है, भौतिक श्री के लिए उन्हें कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। आप भौतिक श्री केवल रुपये-पैसे को ही न समझें, यशकीर्ति, सुखसामग्री, सुन्दर-स्वस्थ-सुडौल शरीर, पारिवारिक, सांघिक, सामाजिक आदि जीवन में परस्पर विनय, अनुशासन, धर्ममर्यादापालन, सिद्धि, उपलब्धि या प्रत्येक सत्कार्य में सफलता, आज्ञाकारिता, वचन की उपादेयता आदि सब बातें भौतिक श्री के अन्तर्गत हैं।
तीर्थंकरों को जो आठ महाप्रातिहार्य' मिलते हैं, वे भी भौतिक श्री (विभूति) के प्रतीक हैं । विविध तपस्याओं या सत्यादि धर्म के पालन से प्राप्त होने वाली सिद्धियाँ, लब्धियाँ, उपलब्धियाँ, क्षमताएँ या शक्तियाँ, अथवा सफलताएँ भौतिक श्री की प्रतीक हैं । सत्यनिष्ठ को उसकी भूमिका के अनुरूप भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की 'श्री' उपलब्ध होती है । निष्कर्ष यह है कि सत्य समस्त श्रीपुंज का मूलस्रोत है । सत्यनिष्ठ को भौतिक श्री की उपलब्धि क्यों और कैसे ?
सत्य में स्थित व्यक्ति को सत्याचरण से अनेक लाभ होते हैं, भौतिक भी,
१ अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिः दिव्यध्वनिश्चामरमासनं च ।
भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रमष्टौ महाप्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ।
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