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________________ सत्यनिष्ठ सत्य का आचरण क्यों करता है ? १७१, सत्य व्यावहारिक ढाँचे का आधार १७३, सत्यनिष्ठा से लाभ १७४ । ३०. सत्यनिष्ठ पाता है श्री को-२ १७६-१९७ सत्य : समस्त 'श्री' का मूल स्रोत १७६, सत्यनिष्ठ को भौतिक श्री की उपलब्धि क्यों और कैसे ? १७६, सत्यपालक की दृढ़ता से देवता भी प्रभावित-दृष्टान्त १८१, सत्यनिष्ठ को श्री प्राप्ति के चार मुख्य स्रोत १८३, (१) सत्य वाणी : कामधेनु-भीमाशाह का दृष्टान्त १८५, (२) सत्य व्यवहार से सहयोग और विश्वास -ताराचन्द सर्राफ का दृष्टान्त १८६, सत्य एक वशीकरण मंत्रअगरचन्द सेठिया का दृष्टान्त १८७, (३) सत्य विचार-युधिष्ठिर का दुर्योधन को सत्परामर्श १८८, (४) सत्य आचार-खानु मूसा का दृष्टान्त १८६, आध्यात्मिक श्री क्या और कैसे १६३, सत्य उत्कृष्ट आत्म-बल १६५।। ३१. कृतघ्न नर को मित्र छोड़ते १९८-२१६ कृतघ्न कौन और कैसे ? १०८, कृतघ्नता सबसे बड़ा दुर्गुण २००, कुत्ते, सिंह, सर्प आदि से भी नीच : कृतघ्न २०२, चोर-लुटेरे शत्रु भी कृतघ्न नहीं २०४, मिट्टी, वनस्पति आदि भी कृतघ्न नहीं २०६, कृतघ्न बनने से क्या हानि, कृतज्ञ बनने से क्या लाभ ? २०७, कृतज्ञ सेठ का दृष्टान्त २१०, मजदूरों की कृतज्ञता-दृष्टान्त २१२, कहाँ कृतज्ञता दिखाई जाए, कहाँ कृतघ्नता से बचा जाए ? २१२, धर्माचरण करने वाले साधक के ५ आलम्बन स्थान २१३, मानव पर तीन के ऋण दुष्प्रतीकार्य २१४, अनाथ बालक की अपने पालक माता-पिता के प्रति कृतज्ञता-दृष्टान्त २१५, कृतघ्न को यश नहीं २१७, मित्र कौन ? वे कृतघ्न को क्यों छोड़ देते हैं ? २१८ । ३२. यत्नवान मुनि को तजते पाप-१ २२०-२४० यत्नवान के विभिन्न अर्थ २२०, गतिशील होना जीवनयात्री के लिए आवश्यक २२१, साधक का लक्ष्य एकांत निवृत्ति या प्रवृत्ति नहीं २२२, अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति चारित्र का लक्षण २२३, प्रवृत्ति का सही अर्थ समझो २२४, स्वयं यतनायुक्त प्रवृत्ति ही बेड़ा पार करती है २२६, प्रत्येक प्रवृत्ति कैसे करें? २२७, यतना का प्रथम अर्थ : यतना, जयणा २२७, यतना : प्रत्येक प्रवृत्ति में मन की तन्मयता २२८, यतना : किसी प्राणी को कष्ट न पहुँचाते हुए क्रिया २३१, अयतना से हानि, यतना से लाभ २३१, यतना की चतुर्विध विधि २३२, गृहस्थवर्ग के लिए भी यतना का विधान २३४, प्रत्येक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004012
Book TitleAnand Pravachan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Shreechand Surana
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1980
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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