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१०४ आनन्द प्रवचन : भाग ६
स्वर्ग में रहता है । अपकीर्ति ( अकीर्ति) ही नरक है । दूसरा कोई नरक द्युलोक में नहीं है ।"
जाने को तो बुढ़िया भी अपनी झौंपड़ी परलोक में साथ नहीं ले गई, और न ही बादशाह अपना बाग साथ में ले गया । दोनों चले गये और दोनों की अपनी मानी हुई चीजें यहीं पड़ी हैं, लेकिन बादशाह की न्यायप्रियता के कारण उसकी कीर्ति अमर है । एक कवि इसी प्रसंग पर उद्बोधन कर रहा है
कर्मकमा जा रे, दुनिया से जाने वाले । यह धन, यौवन संसारी, है दो दिन की फुलवारी । कोई खुशरंग फूल खिला जा रे, दुनिया से तुझ से धन अन्त छूटेगा, जाने किस हाथ लुटेगा । इसे परहित-हेत लगा जा रे, दुनिया से कर दीन-दुःखी की सेवा, यह सेवा जग- यश देवा ।
यश पाना है तो पा जा रे, दुनिया से ...
यशकीर्ति की सुरक्षा के लिए कवि का यह उद्बोधन कितना मार्मिक है ! इस पर से यह तो सिद्ध हो गया कि मनुष्य-जीवन पाने का उद्देश्य केवल मौज - शौक करना या सत्ता, धन या बुद्धि-वैभव पाना ही नहीं है, अपितु ऐसे सत्कार्य करना है, इस प्रकार का सदाचरण करना है, जिससे उसकी कीर्ति कलंकित और नष्ट न हो ।
जैनशास्त्र दशवैकालिक सूत्र (६ / २) में भी बताया है
एवं धम्मस्स विणओ मूलं, परमो से मोक्खो । जेण कित्ति सुयं सिग्धं, निस्सेसं चाभिगच्छ ॥
इसी प्रकार धर्म का मूल विनय है, जो परम मोक्षरूप है, इससे साधक कीर्ति, श्रुत ( शास्त्रज्ञान) और शीघ्र निःश्रेयस को प्राप्त करता है ।
कीर्ति की सुरक्षा के लिए
अब प्रश्न होता है कि कीर्ति – विशुद्ध कीर्ति को सुरक्षित रखने तथा उसे नष्ट होने से बचाने के लिए मनुष्य में किन-किन मुख्य गुणों का होना आवश्यक है ?
गौतम महर्षि ने अकीर्ति प्राप्त होने के दो मुख्य कारण बताये हैं— क्रोध और कुशीलता । इन्हीं दो अवगुणों से नष्ट होती हुई कीर्ति को बचाना चाहिए । जब मनुष्य में क्रोध का उभार आता है, उस समय उसकी विवेकबुद्धि नष्ट हो जाती है, और वह ऐसा कुकृत्य कर बैठता है, जिससे उसकी कीर्ति सदा के लिए नष्ट हो जाती है । उसने जो कुछ भी परोपकार, दान और सेवा के कार्य किये थे, उन सब पर क्रोध पानी फिरा देता है । दानादि कार्यों से प्राप्त हो सकने वाली कीर्ति को वह क्रोध चौपट कर देता है ।
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