________________
धर्म-नियन्त्रित अर्थ और काम
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
पिछले प्रवचनों में मैं अर्थपरायण, कामपरायण, एवं क्षान्ति (धर्म) परायण जीवन के सम्बन्ध में काफी विस्तार से प्रकाश डाल चुका हूँ । अब गौतमकुलक के चौथे सूत्र में धर्म से नियन्त्रित अर्थ-कामयुक्त जीवन के सम्बन्ध में कहना चाहता हूँ। इसे यों भी कहा जा सकता है-धर्ममूलक अर्थकामयुक्त जीवन अथवा धर्मानुसारी अर्थ और काम से युक्त जीवन । चार पुरुषार्थ : चार साधन
भारतीय संस्कृति में गृहस्थजीवन को सुन्दर, व्यवस्थित और सुखशान्तियुक्त बनाने के लिए चार पुरुषार्थों का वर्णन किया गया है। वे चार पुरुषार्थ हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इनमें मोक्ष । चूंकि धर्म पुरुषार्थ की अन्तिम परिणति है, तीनों पुरुषार्थों का साध्य है, इसलिए इसे धर्म के अन्दर ही मिला दिया गया है। धर्म से मोक्ष को अलग नहीं माना गया। सामान्य मानव जीवन के चार आधारभूत तत्त्व हैं जो मानव जीवन में पुरुषार्थ करने के लिए मुख्य चार साधन माने गए हैं-शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा । ये चारों साधन इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति से कृतार्थ और सन्तुष्ट होते हैं । शरीर अर्थ से सन्तुष्ट होता है, मन काम से सन्तुष्ट होता है, बुद्धि धर्म से सन्तुष्ट होती है और आत्मा अपने चरम लक्ष्य मोक्ष को पाकर सन्तुष्ट और संतृप्त होती है। धर्मानुसारी अर्थकामसेवी
प्रश्न होता है कि जब जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष है, तो उसी के लिए पुरुषार्थ होना चाहिए। जैसा कि साधक के लिए आचारांग सूत्र में कहा गया है
तद्दिट्ठिए, तम्मुत्तीए तप्पुरपकारे...." अर्थात्-'मुमुक्ष साधक की दृष्टि मोक्ष की ओर होती है, मोक्ष के लिए ही उसका कर्ममुक्ति का पुरुषार्थ होता है, मोक्ष को आगे करके ही वह बढ़ता है ।
__ जिस प्रकार पंचमहाव्रतधारी निर्ग्रन्थ साधु मुख्यतया मोक्ष की दिशा में ही पुरुषार्थ करता है, उसी प्रकार गृहस्थ-साधक का भी मोक्ष की दिशा में ही मुख्यतया
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org