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________________ ६२ भानन्द प्रवचन : भाग ८ को वीर दुर्गादास ने मजहबी तालीम दिलाने का प्रबन्ध किया, इसके लिए मेरा हृदय बहुत ही एहसान अनुभव कर रहा है। इस एहसान का बदला चुकाने की मेरी हैसियत नहीं, फिर भी वीर दुर्गादास को एक लाख रुपये भेंट किये जाएँ तथा अगर वे स्वीकारें तो शाही सेना में पाँच हजारी मुंसफदारी प्रेमपूर्वक उन्हें दी जाए। उन्हें आग्रहपूर्वक कहना कि मेरी यह प्रेम भरी भेंट स्वीकार करें।" सूबेदार को शाही सन्देश मिलते ही वह अपने साले के साथ जोधपुर पहुंचा। जोधपुर में उसका खूब स्वागत हुआ। जब सूबेदार ने पूर्वोक्त शाही सन्देश सुनाया तो वीर दुर्गादास ने औरंगजेब की इन दोनों भेंटों को विनयपूर्वक अस्वीकार करते हुए कहा- "मैंने अकबर को अपना मां जाया भाई-सा माना था, इस नाते मेरे परिवार के अंगों को धार्मिक शिक्षण दिलाना तो मेरा परम कर्तव्य था। मैंने अपना कर्तव्य किसी प्रकार के बदले की आशा रखे बिना निभाया है। इसका मूल्य मुंसफदारी या रुपयों से नहीं हो सकता। फिर भी यदि बादशाह के मन में यह रंज हो कि मैं कुछ भी स्वीकार नहीं करता, तो मुझे अपना जो (जालोर परगना) था, उसे वापस दे दें, तो मैं उनका बहुत ही एहसानमन्द हूँगा। मेरे अन्तर में उसके मिलने का आनन्द होगा।" -कहना न होगा कि औरंगजेब के पास जब दुर्गादास का यह सन्देश पहुंचा तो उसने परम उदार एवं वीर दुर्गादास को बहुत ही प्रेमपूर्वक जालोर-परगना वापस सौंप दिया। साथ ही दोनों में चल रहे युद्ध की भी पूर्णाहुति कर दी। राज्यलोभी औरंगजेब, जो जीती हुई एक इंच जमीन भी किसी को वापस देना नहीं जानता था, उसे वीर दुर्गादास ने अपनी परधर्म-सहिष्णुता एवं परसन्तान के प्रति उदारता से अत्यन्त झुका लिया, उसके पत्थर से कठोर हृदय को भी झकझोर कर पिघाल दिया। सच कहा है-'स्वेटमार्टेन' कि चुटकी भर उदारता (a pinful generosity) दिखाने से आप किसी भी व्यक्ति को अपना मित्र बना सकते हैं और जरा-सी अनुदारता मित्र को भी शत्रु बना देती है। भाई-भाई के विग्रह जरा-सी अनुदारता को लेकर होते हैं। यदि परस्पर जरा-सी उदारता हो तो विग्रह या विरोध हो नहीं सकता। मेवाड़ की स्वतन्त्रता के लिए दृढ़प्रतिज्ञ महाराणा प्रताप को अपने छोटे भाई शक्तिसिंह के साथ विग्रह का कारण क्या था ? केवल एक मृग हीं तो ! बात यह हुई कि दोनों भाई शिकार खेलने गये। दोनों के बाण एक-साथ ही हिरण को जा लगे । हिरन तो मर गया, किन्तु दोनों के हृदय में असहिष्णुता के बीज बो गया । दोनों का दावा था कि यह हिरन मैंने मारा है। दोनों ही अपनी जिद पर अड़ गए। परिणामतः तलवारें खिंच गईं। राजपुरोहित के बीच-बिचाव से युद्ध तो रुक गया । परन्तु अपमानित शक्तिसिंह अपने भाई के विरोधी दिल्ली सम्राट अकबर के पास पहुंच गए। अकबर तो उन्हें पाकर फूला न समाया । मेवाड़ विजय की ठान ली। परिणाम आप जानते ही हैं। यह चिनगारी सम्पूर्ण मेवाड़ अकबर के हाथ में आने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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