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________________ ४०४ आनन्द प्रवचन : भाग ८ व्यक्ति उस समय वासभवन में उपस्थित न होने से परिवार के अधिकांश लोगों की शंका साध्वीजी पर ही हुई । साध्वीजी ने भी अपनी गुरुणी से मोर के द्वारा हार निगल जाने की घटना सुनाई। इधर श्रीमती के परिवार की बहुत-सी स्त्रियों ने हार गुम हो जाने की चर्चा उपाश्रय में तथा अन्यत्र फैला दी । साध्वीजी से गुरुणी ने कहा - "कर्मों की गति विचित्र है । समता धारण करो । जो कुछ सत्य होगा, वह प्रकट हो जायेगा ।" यह सुनकर साध्वीजी तप जप में लीन हो गयीं । साध्वीजी को तपश्चर्या करती देखकर श्रीमती और कान्तिमति के पति ने उनका उपहास किया । मगर वह धर्म से भ्रष्ट न हुई । इस कारण पहले जो कर्म बाँधे थे, वे कुछ हलके हुए । एक दिन श्रीमती अपने पति के पास वासभवन में बैठी थी, इतने में चित्रामणमोर ने नीचे उतर कर हार उगल दिया । उसे देख पति पत्नी दोनों को बहुत पश्चाताप हुआ कि नाहक ही साध्वीजी पर मिथ्यादोषारोपण किया । धन्य है गम्भीर एवं समता धारिणी साध्वी को ! स्वयं जानते हुए भी मोर की हत्या होने की सम्भावना से कहा नहीं । फिर पति-पत्नी दोनों आकर साध्वीजी से क्षमायाचना करने लगे । उसी समय साध्वीजी उच्च भावना से ध्यानारूढ़ होकर क्षपक श्रेणी पर पहुँचीं और केवलज्ञान प्राप्त किया । देव केवलज्ञान महोत्सव करने आए। उस समय श्रीमती आदि सब नारियों ने केवलज्ञानी साध्वीजी से विनयपूर्वक इस कर्मविपाक का कारण पूछा तो उन्होंने पूर्वभवों से लेकर अब तक का सारा वृत्तान्त स्पष्ट रूप से बताया । अन्त से सबसे कहा- मैंने माया से पीड़ित होकर संसार के इतने सब दुःख पाये । इसलिए माया को अत्यन्त खतरनाक समझकर तुम कोई भी इसके चंगुल में मत फँसना । यदि जरा-सी माया कर ली तो जन्म-जन्मान्तर में उसका दारुण दुःख भोगना पड़ेगा । माया करते रहने से पुण्य का नाश हो जाता है, पाप कर्मों का बन्ध होता है, जिससे जीवन में दुर्भाग्य प्राप्त होता है, दुर्गति मिलती ही है । इसलिए गौतम ऋषि ने सावधान किया है माया, भयं कि ? भय और कोई नहीं, माया ही है । प्रत्येक सफल जीवनजीवी का कर्तव्य है कि वह माया को भय की खोन जान कर उससे बचने का प्रयत्न करे। बहुत से लोग यह सोचते हैं कि हम जितना दूसरों को ठगते हैं, दूसरों को अपने छलबल से वश में करते हैं, उतने ही हम जीवन विकास करते हैं, परन्तु यह भ्रम है । माया तो मानव जीवन को और पीछे धकेलती है और तो और वह सुगति में भी रुकावट डालती है । एक पाश्चात्य विचारक के शब्दों में— "Fraud generally lights a candle for justice to get a lookal it; and a rogue's pen indites the warrent for his own arrest.” माया सामान्य रूप से न्यायाधीश को अपने पर एक दृष्टिपात करने के लिए बत्ती जला देती है, और तब प्रवंचक ( धूर्त) की कलम अपनी गिरफ्तारी के लिए स्वयं वारंट लिख देती है । तात्पर्य यह है कि माया देरसबेर अपने आप ही पकड़ी जाती है, और उसकी भयंकर सजा पाती है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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