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________________ ३६० आनन्द प्रवचन : भाग ८ मैंने अभी-अभी आपके समक्ष उल्लेख किया है, तो प्रमाद के कारण क्या हैं ? वे कितने हैं ? यों तो शास्त्र में प्रमाद के पाँच, आठ आदि भेद बताए हैं। परन्तु मुख्यतया पाँच भेद ही प्रसिद्ध हैं, जो प्रमाद के कारण हैं । एक गाथा इस प्रकार है मज्जं विसय-कसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया। पाँच प्रमाद इस प्रकार हैं-मद्य, विषय, कषाय, निद्रा, और विकथा । मद्य का अर्थ है-नशीली चीजें, ऐसा खानपान जिससे नशा पैदा हो जाता हो ! मद्य अवश्य ही शरीर, मन और बुद्धि में प्रमाद, जड़ता, एवं आलस्य लाता है। वह हिताहित का भान भुला देता है । यही तो प्रमाद है। पाँचों इन्द्रियों के पाँच विषय हैं, उन पर राग-द्वेष, आसक्ति, मोह या घृणा आदि करना प्रमाद का कारण है । कषाय मुख्यतया चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । ये चारों कषाय जब जीवन में आ जाते हैं, तब मनुष्य आत्मभान भूल जाता है, यही प्रमाद है। इसलिए कषाय भी प्रमाद के कारण हैं। निद्रा प्रमाद का कारण कैसे बनती है, इसका स्पष्टीकरण मैं अभी-अभी कर चुका हूँ। पांचवाँ प्रमाद का कारण है-विकथा । विकथा का मतलब है, विकृत कथाएँ जिनसे मोह, असंयम, कषाय, विषयासक्ति आदि विकार पैदा हों। विकथाएँ मुख्यतया चार प्रकार की बताई हैं-स्त्री-विकथा, भक्त (भोजन) विकथा, राज-विकथा, और देश-विकथा । ये चारों विकथाएँ वाणी के प्रमाद की कारण हैं । वाणी का अविवेक तो प्रमाद का कारण है ही। अप्रमाद : स्वरूप और प्रकार जितने भी प्रकार के प्रमाद हैं, उतने ही प्रकार अप्रमाद के हैं। प्रमादों से विरत होना, प्रमाद-रहित स्थिति में रहना, जागृत रहना, विवेक और होश में जीना अप्रमाद है। अप्रमाद स्थिति सहजभाव की, स्वभाव की स्थिति है। प्रमाद अस्वाभाविक और असहज स्थिति है। चूंकि पहले मैंने बताया था कि प्रमाद को समझे बिना, अप्रमाद समझ में नहीं आ सकता। इस दृष्टि से अमूर्छा, अनालस्य, सत्पुरुषार्थ, सावधानी, प्रतिक्षण जागृति और विवेक अप्रमाद की गणना में आते हैं। इसलिए अप्रमाद ही समस्त प्रमादों का निवारण है । आचारांग सूत्र में कहा गया है "पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्तो परिब्बए।" 'प्रमत्त पुरुष को धर्म से बाहर समझो, और अप्रमत्त बन कर धर्म का आचरण करो।' चूंकि अप्रमाद प्रमाद का विरोधीभाव है अतः अप्रमाद की स्थिति लाने के लिए सभी प्रकार के प्रमादों से और प्रमाद के कारणों से बचना आवश्यक है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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