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अप्रमाद : हितैषी मित्र
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इसी तरह पौषध के पाठ में भी बताया है
_ 'पोसहस्स सम्म अणणुपालणाए' पौषध का सम्यक्प्रकार से पालन न किया हो। इसीप्रकार पौषध में प्रमार्जन एवं प्रतिलेखन भी सम्यक्प्रकार से न किया हो तो वह भी दोष (अतिचार) है।
आप देखेंगे, भगवान महावीर ने साधकों को खाने, पीने, सोने, जागने, भिक्षा, प्रतिलेखन, प्रमार्जन, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग, तप, शयन, आदि के साथ विवेक को जोड़ा है। जितनी भी क्रियाएँ करो, चाहे वे छोटी हों, या बड़ी हों, परन्तु पूरे होश (विवेक) के साथ करो। होश या विवेक के बिना की गई बड़ी से बड़ी क्रिया भी प्रमाद युक्त है और कर्मबन्ध जनक है। परन्तु विवेक पूर्वक की गई छोटी से छोटी क्रिया भी अप्रमाद युक्त है, वह कर्मबन्ध से मुक्त कर सकती है, कम से कम पाप कर्मों के बन्ध से तो साधक को मुक्त कर ही सकती है ।
- प्रत्येक क्रिया अविवेक से करना : प्रमाद आज हम देख रहे हैं कि अधिकांश लोग वात्सल्य या घृणा, मैत्री या शत्रुता, क्रोध या क्षमा, विनय या अहंकार आदि जो कुछ भी करते हैं, प्राय: सोये हुएअविवेक से करते हैं।
___ अप्रमाद का सन्देश है, सोना है तो भी विवेक से और जागना है तो भी विवेक से। इसका मतलब है-विवेक अप्रमाद का अंग है। उसकी पहरेदारी प्रत्येक क्रिया पर रखी जाए तो फिर अपने आप मनुष्य गलत ढंग से जी नहीं सकेगा। विवेक पूर्वक जो साधक सोएगा, वह सोचेगा कि मुझे कितनी देर सोना है, कहाँ सोना है ? कैसे सोना है ? क्यों सोना है ? कब सोना है ? किस प्रकार के बिछौने पर सोना है ? शरीर को शयन की कितनी जरूरत है ? शयन काल में किन-किन दोषों या विकारों से बचना है ? ऐसा अप्रमादी व्यक्ति सोता हुआ भी जागृत रहता है। इसीलिए आचारांग में कहा है
___ 'सुत्ताऽमुणिणो मुणिणो सया जागरंति' अमुनि ही सुप्त रहते हैं, मुनि तो सोते हुए भी सदा जागृत रहते हैं। भगवद्गीता में भी साधारण सांसारिक प्राणी और योगी की पृथक्-पृथक् जीवन दशा का वर्णन करते हुए कहा है
या निशा सर्वभूतानां, तस्यां जागति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि, सा निशा पश्यतो मुनेः ।। समस्त प्राणियों के लिए जो अंधेरी रात है, उसमें संयमी पुरुष जागृत रहता है और जिस घोर रात्रि में सांसारिक प्राणि जागते हैं, वह द्रष्टा मुनि के लिए अंधेरी रात है।
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