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________________ ३७४ आनन्द प्रवचन : भाग ८ "जो पापों से हटाता है, और कल्याण मार्ग में संलग्न करता है, गुप्त बात को उछाल कर बदनाम नहीं करता, बल्कि उसे गुप्त रखता है, गुणों को प्रकट करता है । विपत्ति में पड़े हुए साथी को नहीं छोड़ता, समय पर सहायता देता है, सन्त जन इसे ही सन्मित्र कहते हैं।" अप्रमाद भी मानव जीवन का एक सन्मित्र है, जो मनुष्य को सतत सावधान रख कर पथप्रदर्शन एवं जीवन-निर्माण का काम करता है। अप्रमाद के रहते पाप टिक नहीं सकते । पापों को स्वयमेव भागना पड़ता है, अप्रमाद की स्थिति में । अप्रमाद-अवस्था में मनुष्य हित-अहित, कर्तव्य-अकर्तव्य, धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप आदि को भलीभांति समझ लेता है, इसलिए स्वाभाविक है कि अप्रमाद मनुष्य को हित मार्ग में लगाता है, अहित मार्ग से बचाता है। अप्रमाद जब जीवन में आ जाता है, तो मनुष्य के पूर्वकृत पापों का बार-बार स्मरण करा कर उसमें व्यर्थ की ग्लानि और आत्महीनता पैदा नहीं करता, वह पूर्वकृत पापों का एक बार पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त या आलोचन करा कर फिर उन्हें भुला देता है । जो कुछ भी गुप्त पाप हुए हों, उन्हें भी अप्रमाद आत्म-शुद्ध करा कर फिर भुला देता है। अप्रमाद मनुष्य को वर्तमान में कर्तव्य-निष्ठा, शुद्ध पुरुषार्थ और प्रतिपल सावधान रह कर समय का सदुपयोग करने का सन्देश देता है । वह मनुष्य में निहित गणों और शक्तियों को उसके ज्ञानालोक से प्रकाशित कर देता है, ताकि मनुष्य अपने में निहित शक्तियों और गुणों की निधि को जान कर सत्पुरुषार्थ कर सके और जब भी ऐसा साधक मानव किसी विपत्ति में फंस जाता है, किसी आफत या संकट से घिर जाता है, किन्हीं दुष्टों, बदमाशों या शत्रुओं के दल के बीच में आ जाता है, अथवा काम-क्रोधादि आन्तरिक शत्रुओं के चक्कर में आ जाता है, तब अप्रमाद ही उसका सहायक बन कर विवेकपूर्वक उनसे बचने का रास्ता बताता है, अप्रमाद ही उसकी बुद्धि को स्थिर, सन्तुलित एवं परिमार्जित रख कर सन्मार्ग की स्फुरणा भर देता है। संकट के समय वह साधक को छोड़ता नहीं तथा समय आने पर अप्रमाद साधक में साहस, उत्साह और निर्भयता, आत्मबल भर देता है। इस प्रकार समय-समय पर अप्रमाद साधक को सहयोग देता रहता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि अप्रमाद साधनामय जीवन का सच्चा साथी है, हमदर्द और हमजोली मित्र है। उसके जैसा सन्मित्र संसार में वही है। वही मनुष्य को आलस्य, असावधानी और प्रमाद रूपी शत्रु से बचाता है। सूत्रकृतांग सूत्र (८/३) में अप्रमाद के होने से साधक की विशेषता बताते हुए कहा है पमायं कम्ममाहंसु अप्पमायं तहावरं । तब्भावादेसओ वावि, बालं पंडियमेव वा ॥ वीतराग प्रभु ने प्रमाद को कर्मबन्ध का स्रोत और अप्रमाद को कर्मबन्ध से मुक्त कराने वाला कहा है। प्रमाद के होने और न होने से (अप्रमाद के होने से) ही मनुष्य क्रमशः बाल एवं पण्डित कहलाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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