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________________ ३७० आनन्द प्रवचन : भाग ८ चाकर महल, बंगले, कार, कोठी आदि सभी वस्तुओं का समावेश हो जाता है । इसलिए ऐश्वर्यमद का अर्थ है - इन सभी वैभव-विलास की सामग्री का मद - अहंकार । धन, वैभव का मद करने वाले मूर्खों के स्वर्ग में रहते हैं । वे नहीं जानते कि संसार में एक से एक बढ़ कर धनकुबेर बैठे हैं। मानो अरबपति हो, तो भी देवों के वैभव के आगे वह किस बिसात में हैं ? दुनिया में बड़े-बड़े वैभवशाली, सम्राट्, शासक, पूँजीपति, मिलमालिक, जमींदार, व्यवसायी, उद्योगपति आदि बैठे हैं, मैं ही व्यर्थ ही अहंकार करके अपने को क्यों मुसीबत में डाल रहा हूँ ! ऐश्वर्यमद का त्याग करने पर ही मनुष्य को सुख-शान्ति मिल सकती है । राजा दशार्णभद्र भगवान् महावीर का आगमन सुन कर हर्ष से पुलकित हो उठा । उसके अहं ने उसे प्रेरित किया - मैं ऐसे ठाठबाठ से सदलबल भगवान् के दर्शन करने जाऊँ कि आज तक कोई भी राजा या वैभवशाली न गया हो फलतः भक्ति के साथ अभिमान ने उनकी विवेक बुद्धि पर पर्दा डाल दिया । राजा ने अपने मंत्रियों एवं सेवकों को सब प्रकार की तैयारी करने का आदेश दे दिया । सारा नगर सजाया गया । स्थान-स्थान पर द्वार बनाए गए । नाटक रचे गए । सुगन्धित पदार्थों से नगर महक उठा। हाथी, घोड़े, रथ सभी अच्छे ढंग से रत्नजटित आभूषण एवं साज बाज के साथ सजाए गए । राजा एवं समस्त राजपरिवार, दरबारी, राज कर्मचारी, सैनिक, श्रेष्ठी आदि सब लोग सुसज्जित होकर आ गए। राजा दशार्णभद्र हाथी पर बैठे ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो इन्द्र ऐरावत हाथी पर बैठा हो । ठीक समय पर सवारी राजमहल से रवाना हुई । इन्द्र को दशार्णभद्र की तीर्थंकर भक्ति के साथ वैभव के अहंकार का पता लगा तो उन्होंने इससे भी बढ़कर सजधज के साथ आकाश मार्ग से वैक्रियशक्ति द्वारा हाथी पर आरूढ़ देवदेवियों की सवारी उतारनी शुरू की । दशार्णभद्र का वैभव इन्द्र के वैभव के आगे फीका पड़ने लगा । ज्यों ही दशार्णभद्र राजा ने इन्द्र-वैभव से अपने वैभव की तुलना की तो उसका मन ग्लानि से भर गया । भगवान् महावीर के चरणों में पहुँच कर सविनय वन्दना करके प्रार्थना की"प्रभो ! मुझे बचाइए इस अभिमान से ! मुझे ऐसा उपाय बताइए, जिससे इन्द्र से बाजी मार लूं ।" भगवान् के केवलज्ञान के प्रकाश में दशार्णभद्र के अहंकार का दृश्य छिपा नहीं था । उन्होंने फरमाया - "राजन् ! बाह्य वैभव में तो तुम द्र जीत नहीं सकते, आध्यात्मिक वैभव में तुम आगे बढ़ सकते हो, इन्द्र से । तुम्हारी समता इन्द्र नहीं कर सकता । परन्तु आध्यात्मिक - वैभव के लिए बाह्य वैभव तथा साथ ही अहंकार आदि सब मनोविकार छोड़ना अनिवार्य है ।" दशार्णभद्र का मन आध्यात्मिक वैभव पाने के लिए उत्कण्ठित हुआ । उसी समय उसने राजपरिवार से अनुमति लेकर भगवान महावीर के चरणों में मुनि दीक्षा ले ली। अपना अहंकार आदि सर्वस्व प्रभु चरण में समर्पित कर दिया । बस, अब तो शीघ्र ही इन्द्र मुनि दशार्णभद्र के चरणों में सिर झुका कर कहने लगा - मुनिवर राजर्षि ! धन्य है आपको । इस वैभव में मैं आपसे जीत नहीं सकता। मैं इतना त्याग नहीं कर सकता । सारांश यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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