SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शत्रु बड़ा है, अभिमान ३६७ यह है कि मनुष्य लाभ और अलाभ में समभाव से रहे, न हृष्ट हो न रुष्ट, न लाभ के समय फूले और न अलाभ के समय तड़फे । लाभ के समय गर्व से फूलने वालों का कितना बुरा हाल होता है, यह एक प्राचीन शास्त्रीय कथा पर से सुनिए परशुराम जमदग्नि तापस का पुत्र था। उसने एक बार एक रुग्ण विद्याधर की सेवा की, इससे प्रसन्न होकर विद्याधर ने परशुराम को परशु विद्या दी । परशुराम ने उस परशु विद्या को सिद्ध किया और जगत में परशुराम नाम से विख्यात हुआ। परशुराम की माता रेणुका एकबार अपने बहनोई के यहाँ बहन से मिलने गयी थी। वहाँ बहनोई के फुसलाने पर रेणुका उसके साथ व्यभिचार में प्रवृत्त हो गई। पता लगा तो क्रुद्ध होकर जमदग्नि रेणुका को घर लाया। परशुराम ने जब यह बात जानी तो अपने परशु से अनन्तवीर्य को मार डाला। उसकी गद्दी पर कृत वीर्य बैठा, उसने अपने पितृहन्ता जमदग्नि को मार डाला। यह जान कर परशुराम अत्यन्त कोपायमान हुआ और जाज्वल्यमान परशु से कृतवीर्य के साथ संग्राम करके उसका वहीं काम तमाम कर डाला । कृतवीर्य की जगह स्वयं गद्दी पर बैठा । कृतवीर्य की गर्भवती रानी भागकर एक तापस के आश्रम में पहुँची, वहीं भय-विह्वल होकर उसने पुत्र प्रसव किया। उसका नाम रखा सुभूम । वहीं वह तापस आश्रम में ही बड़ा होने लगा। परशु विद्या की सिद्धि का लाभ परशुराम के लिए भयंकर गर्व का कारण बना। वह लाभमद से उत्पन्न होकर जहाँ-जहाँ क्षत्रिय को देखता, उसे परशु से मौत के घाट उतार देता। उसकी परशू क्षत्रिय के पास जाते ही प्रज्वलित हो उठती। एक वह तापस-आश्रम के निकट से गुजर रहा था, तभी उसकी परशु प्रज्वलित हो उठी। उसने तापस-आश्रम में जाकर पूछा- “यहाँ कोई क्षत्रिय है ?" तापसों ने कहा-"यहाँ तो हम क्षत्रिय हैं । मारना हो तो मार डालो।" उसकी शंका दूर हुई। यों परशुराम ने क्रमशः सात बार पृथ्वी को निःक्षत्रिय (क्षत्रियरहित) कर दी । क्षत्रियों की हत्या करके उनकी दाढ़ों से थाल भर लिया। एक दिन पशुराम ने एक नैमित्तिक से पूछा- 'मेरी मृत्यु किससे होगी ?" नैमित्तिक बोला—'जो तेरे सिंहासन पर बैठेगा, और जिसके देखते ही थाल में रखी हुई दाढें खीर बन जाएगी तथा उस खीर को जो खायेगा, वही तुझे मारने वाला होगा।" यह सुनकर परशुराम ने उसे पहचानने के लिए एक दानशाला स्थापित की, वहीं एक सिंहासन रखवाया और उसके आगे वह दाढ़ों का थाल रखा । इधर वैताढ्य पर्वत निवासी मेघनाद विद्याधर ने एक नैमित्तिक से पूछा कि मेरी पुत्री का वर कौन होगा ?" उसने बताया कि सुभूम चक्रवर्ती होगा। तब से वह सुभूम चक्रवर्ती की सेवा में रहने लगा। जब सुभूम जवान हुआ तो माता से पूछा"क्या दुनिया इतनी ही है ?" माता ने उसके जन्म से लेकर अब तक का सारा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy