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________________ शत्रु बड़ा है, अभिमान ३६१ एक सन्यासी से किसी भक्त ने कहा- "मैं ३२ वर्ष से बन्दगी कर रहा हूँ, परन्तु मुझे ज्ञान नहीं होता।" सन्यासी बोले-'यों तो ३०० वर्ष में भी नहीं होगा।" भक्त ने पूछा- "तब फिर क्या उपाय करूँ ?" सन्यासी ने कहा- 'शृंगार छोड़कर, सिर मुंडाकर परिचित लोगों से रोटी माँग कर खा ।" भक्त-"यह कैसे सम्भव हो सकता है ?" सन्यासी बोले- "भाई, सौ बातों की एक बात है-अभिमान छोड़े बिना लाख उपाय कर लो, तुम्हें सच्चा ज्ञान नहीं मिलेगा।" इसलिए अभिमान मनुष्य को सद्ज्ञान प्राप्ति होने में बाधक है। विनय का नाशक अभिमान विनय का तो कट्टर दुश्मन है। जहाँ अभिमान होगा, वहाँ विनय टिक नहीं सकेगा। अभिमान के समाप्त होने पर ही मनुष्य के मन में विनय का प्रारम्भ होगा। बुखारा शहर में एक ऐसा उद्दण्ड और अविनयी व्यक्ति था, जो हर किसी की निन्दा एवं बुराई किया करता था। यहाँ तक कि वहाँ के सहृदय एवं लोकप्रिय प्रजावत्सल राजकुमार की भी निन्दा करने से नहीं चूकता था। उसकी दृष्टि दोषदर्शन की थी, जिससे अच्छाई में भी उसे बुराई नजर आती। राजकुमार को उसकी करतूतों का सेवकों द्वारा सब कुछ पता लग जाता था। एक दिन राजकुमार ने उसके अहंकार को उतारने के लिए एक तरकीब सोची। अपने सेवक के साथ उपहारस्वरूप कुछ चीजें भेजीं। सेवक उसके यहाँ पहुँचा और बोला-"भाई ! तुम राजकुमार की बहुत याद करते हो, उन्होंने प्रसन्न होकर एक बोरी आटा, एक थैली साबुन और थोड़ी-सी शक्कर उपहारस्वरूप भेजी है।" उसकी प्रसन्नता का क्या ठिकाना ! गर्व से फूला न समाया। उसने मन ही मन सोचा कि 'ये वस्तुएँ राजकुमार ने उसे प्रसन्न करने के लिए भेजी है, ताकि वह उसकी बुराई न करे ।' वह दौड़ा-दौड़ा पादरी के पास गया। बोला-"देखा, अब राजकुमार भी मेरी सद्भावनाएँ प्राप्त करने के इच्छुक हैं, तभी तो उन्होंने ये सब चीजें मेरे लिए भेजी हैं।" पादरी ने कहा-"तुम मूर्ख हो । अहंकार के कारण तुम्हारी बुद्धि पर पर्दा पड़ा है। उसे हटाने के लिए, चतुर राजकुमार ने तुम्हें इशारे से सारी बातें समझाने का प्रयत्न किया है। जरा विवेक बुद्धि से काम लो। आटा तुम्हारा खाली पेट भरने के लिए है, साबुन तुम्हारे दुर्गन्ध युक्त गन्दे शरीर को स्वच्छ करने के लिए हैं और शक्कर तुम्हारी कड़वी जबान को मीठी बनाने के लिए है।" कहना न होगा, उस अभिमानी के अभिमान का सारा नशा उतर गया। सचमुच, अहंकार से अविनय पैदा होता है, जो अहंमुक्त होते ही दूर हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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