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________________ क्रोध से बढ़कर विष नहीं ? ३२७ और नम्रतापूर्वक इसने भी सन्तचरणों में निवेदत किया-"गुरुदेव ! आपने जिस दोष का आज वर्णन किया, वह हूबहू मेरे जीवन में है। मैं अतीव क्रोधी स्वभाव का हूँ। मैं अपने इस क्रोध-रोग से अत्यन्त बेचैन हो उठा हूँ, ऊब गया हूँ। कृपया, इसका कोई अकसीर इलाज बताइए, जिससे मैं क्रोध-रोग से छुटकारा पा सकूँ। मैं आपका अत्यन्त उपकार मानूंगा।" संत ने आश्वासन देते हुए कहा-"वत्स ! घबराओ मत । प्रयत्न करने पर कोई भी वस्तु असम्भव नहीं। यह तुम्हारे पूर्व संस्कारों का परिणाम है। धीरे-धीरे अभ्यास से ये कुसंस्कार भी निर्मूल हो जाएँगे।" यों कहकर संत ने उसे एक मंत्र दिया और बताया-"जब क्रोध का प्रसंग उपस्थित हो, तब मौन धारण करके इस मंत्र को २१ बार बोलना तथा उस क्रोधजन्य वातावरण को छोड़कर कहीं दूर चले जाना । यद्यपि कुछ दिनों तक तो पड़ी हुई आदत तुम्हें बहुत हैरान करेगी। परन्तु अपने दृढ़ संकल्प पर डटे रहना। भविष्य में गलती न हो, इसके लिए प्रभु से प्रार्थना करना। अपनी आत्मा को लक्ष्यपूर्वक जागृत रखना। इसी प्रकार का ध्यान और जप करना, जिसमें क्षमा, नम्रता, प्रेम, मैत्री, प्रमोद, करुणा, दया, जीवों के स्वभाव, आदि का गहराई से चिन्तन करना । इस मंत्र पर भी सुबह-शाम एकाग्रतापूर्वक चिन्तनमनन के साथ जप करना। जिज्ञासु रमणलाल को मंत्र क्या मिल गया, तीन लोक की निधि मिल गई । उसकी प्रसन्नता का पार न रहा । यद्यपि पूर्व संस्कारवश कुछ दिनों तक तो वह यदा-कदा क्रुद्ध हो जाता; लेकिन वह कोरी स्लेट थी, मन में श्रद्धा का तत्त्व अधिक था, तर्कजाल में फंसा नहीं था, इसलिए कुछ ही दिनों में उसका क्रोध-रोग शान्त होता दिखाई दिया। रमणलाल की जागृति से धीरे-धीरे क्रोध विकार पलायमान होने लगे। ___एक दिन रमणलाल के क्रोध विजय की कसौटी हुई । एक दिन घर में खिचड़ी बनी थी, उसमें मां व पत्नी दोनों ने नमक डाल दिया था। नमक दो बार पड़ जाने के कारण खिचड़ी खारी हो गई थी। वही खिचड़ी रमणलाल की थाली में परोसी गई थी। खिचड़ी का कौर मुह में डालते ही खारी लगी। पहले ऐसा प्रसंग आता तो बह खिचड़ी की थाली माँ या पत्नी के माथे पर दे मारता था, पर अब रमणलाल बदल गया था। पूर्व संस्कारों ने जोर तो खूब लगाया, पर आज बागडोर रमणलाल के हाथ में थी। वह 'ओ३म् गुरुदेव' मन में बोल कर जरूरी कार्य के बहाने सीधा दूकान पर पहुँचा। उसके बाद जब माँ ने खिचड़ी खाई तो उन्हें भी खारी लगी। बहू से पूछने पर पता लगा कि उसने भी नमक डाल दिया था। अब मां की समझ में आया कि रमण भोजन की थाली पर से क्यों उठकर चला गया था। मां तुरन्त दूकान पर पहुंची। पुत्र को आग्रहपूर्वक मनाने लगी-बेटा, जल्दी घर चलो। हमें पता नहीं था, भूल से नमक दो बार डाल दिया था। हमारी भूल के लिए हमें क्षमा करो। तुम जो कहोगे, वह मैं बना दूंगी।" मां के वात्सल्यमय वचन सुनकर रमणलाल के घर के द्वार खुले । आज उसे वात्सल्य का अनुभव हुआ। सोचने लगा-क्रोध ने मुझे बहरा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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