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क्रोध से बढ़कर विष नहीं ?
धर्मप्रेमी बन्धुओ !
आज मैं आपको जीवन के ऐसे मोड़ पर ले जा कर बता देना चाहता हूं कि एक जीवन ऐसा भी है, जिसमें अमृत के बदले जहर बरसता है । आप पूछेगे कि वह जहर क्या है, कौन-सा वह विष है, जिसके द्वारा मनुष्य अपने जीवन सम्पर्क में आने वाले को भी विषाक्त बना देता है ? गौतम ऋषि ने यही प्रश्न उठा कर साथ-साथ समाधान किया है । उनका यह १५ वाँ जीवन सूत्र है
___ कोहो, विसं कि ? अर्थात्-जीवन में विष क्या है ? क्रोध । अब आप समझ गए होंगे कि एक जीवन ऐसा होता है, जिसमें अमृत के बदले विष बरसता है, अमृतमय बनने के बदले वह जीवन विषमय बनता है । मनुष्य के पास अमृत और विष दोनों हैं ।
मनुष्य की जो शुद्ध आत्मा है, वह तो अमृतमय है, उसमें स्वाभाविक रूप से कोई भी विष नहीं है। किन्तु वह आत्मा जब क्रोध, काम आदि बाह्य जहरीले वातावरण के सम्पर्क में आती है, उनमें आसक्त हो जाती है या इष्ट-वियोग एवं अनिष्ट संयोग के समय क्षुब्ध हो जाती है, तब विषाक्त बन जाती है। ऐसी विषाक्त आत्मा जिस किसी के सम्पर्क में आती है, वहाँ भी विष ही फैलाती है।
यों देखा जाय तो मनुष्य को उपनिषद् के ऋषियों ने 'अमृत पुत्र' कहा है । अमृत पुत्र का मतलब है-जो परमात्मा है, अजर अमर है, निर्विकार है, निरंजन निराकार है, उसका पुत्र अर्थात् उसका उत्तराधिकारी बेटा। मनुष्य को अमृत पुत्र कहने के पीछे रहस्य यही है कि संसार के समस्त प्राणियों में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो परमात्मा के निकट पहुँच कर स्वयं अमृतमय बन सकता है। दूसरे किसी प्राणी में मोक्ष पहुँचने या प्राप्त करने की योग्यता नहीं है। इसलिए अमृत पुत्र अगर कोई हो सकता है तो मनुष्य ही। मनुष्य जब अमृतपुत्र है तो उसके पास अमृत का भण्डार तो है ही। किन्तु वह अपने अमृत के भण्डार को विष से लिपटा लेता है। मनुष्य के पास तीन बड़े-बड़े महत्त्वपूर्ण साधन हैं—मन, वचन और काया।
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