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________________ पाते नरक, लुब्ध लालची ३०६ आज प्रायः ऐसा अविवेक पूर्ण दुःसाहस चारों ओर बढ़ रहा है। एक ओर बालकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, दूसरी ओर खाद्य पदार्थों से लेकर वस्त्र, मकान, चिकित्सा, शिक्षा, रोजी, रोटी आदि के सभी साधन पिछड़ते जा रहे हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या अगणित समस्याएं पैदा करती हैं। इस बढ़ती हुई मंहगाई और घटती हुई आमदनी के युग में अंधाधुंध बच्चे पैदा करते जाना किसी भी दृष्टि से बुद्धिमत्ता नहीं है । अधिक सन्तान पैदा होने पर मनुष्य उनके शिक्षा-संस्कार एवं नैतिक जीवन तथा सदाचार पर ध्यान नहीं रख पाता। फलतः सन्तान कैसे संस्कारी, नीतिमान, सदाचारी एवं कर्तव्यपरायण बन सकती है। फिर सन्तान का सद्गुणी होना बहुत कुछ पति-पत्नी के हार्दिक प्रेम, विलासिता एवं शृंगार तथा फैशन से दूर रह कर सादगी और उचित संयम पर निर्भर है। कामवासना की शारीरिक और मानसिक अमर्यादित प्रक्रियाएँ व्यभिचार को जन्म देती हैं। उससे स्वास्थ्य, सद्भाव एवं दाम्पत्यजीवन की निष्ठा पर बहुत आघात पहुँचता है। एक पतिव्रत की तरह एक पत्नीव्रत का महत्व भी नैतिक धार्मिक दृष्टि से एवं सामाजिक जीवन की स्वस्थता की दृष्टि से अनिवार्य है। जिस प्रकार अपनी कमाई के अतिरिक्त दूसरों का पैसा हड़पना पाप है, उसी प्रकार अपनी छोटी-सी दम्पतिमर्यादा के बाहर विकार की दृष्टि से देखना पाप है, घातक है। पाप दृष्टि से हजार नारियों को देखने पर भी संयोग का अवसर एक से भी नहीं मिलता। पाप हजार मन का चढ़ा और लाभ रत्ती भर भी नहीं हुआ, ऐसी व्यर्थ विडम्बना में, पापपंक में लिप्त करने से क्या भलाई हो सकती है ? जो विवाहित हैं, वासना का क्षेत्र उनके लिए उतना ही सीमित है, उससे बाहर नहीं। जो अविवाहित हैं, उन्हें बे वक्त की शहनाई नहीं बजानी चाहिए। अकारण अशान्ति को आमंत्रण देना शक्ति के सर्वनाश के सिवाय और क्या है, बिछुड़े हुए लोगों को अपनी शक्तियों को संचित करके समाज-सेवा में तथा आध्यात्मिक विकास में लगाना चाहिए। वासना क्या है ? मछली का पेट फाड़ने वाली आटा लगी काँटे की नोक मात्र है। इसके क्षणिक से जादू से अपने को बचाए रखना, भयंकर बर्बादी से बचाना है । वासना के क्षेत्र में असन्तोष की भयंकरता वित्तषणा से भी प्रचण्ड है। जो रात-दिन परस्त्री संगम की हबिस रखते हैं, रागरंग और भ्रष्टचरित्र स्त्रियों में ही घिरे रहते हैं, उनका जीवन घोर नरक समान ही तो है। वित्तषणा से समाज का आर्थिक ढाँचा चरमरा गया है तो पुत्रषणा से मानसिक ढाँचा लड़खड़ा गया है। संसार को अणुबमों से इतना खतरा नहीं है, जितना अमर्यादित कामवासना के ववण्डर से । इसी कारण पश्चिम के लोग त्रस्त हो गए हैं । ययाति राजा इसी कारण जिंदगी के बहुत बड़े लाभ से वञ्चित रहा। फिर पुत्रैषणा से लिप्त नर-नारी पुत्र प्राप्ति के लिए भयानक कुकर्म तक कर बैठते हैं । खासतौर से महिलाएँ भोपों, सयानों तथा जादूगरों आदि के चक्कर में फँस कर व्यभिचार आदि कर्म में प्रवृत्त होती हैं, दूसरे के बच्चे को मारने तक के कुमर्म कर डालती हैं । यह पुत्रैषणा कितनी भयंकर है । पौत्रेषण के चक्कर में पड़ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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