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________________ ३०६ आनन्द प्रवचन : भाग ८ इतना ही वैभव और ऐश्वर्य क्यों न हो। इस प्रकार मनुष्य प्रचुर धन का स्वामी बनने के, अन्ततः ऐश्वर्य का सुखोपभोग करने के स्वप्न देखा करता है। आज प्रायः हर व्यक्ति धन के लिए प्यासा-सा फिरता है। धन, अधिक धन और अधिकाधिक धन ! यह एक ही पुकार प्रायः प्रत्येक दिल-दिमाग से उठती सुनाई देती है । धर्मध्वजी पाखण्डी सन्त-महन्तों से लेकर जेबकट और चोर-डाकुओं तक हर वर्ग के लोग धन की आकांक्षा से पीड़ित होकर अपने-अपने चरखे चलाते रहते हैं। विचारणीय यह है कि क्या धन की इतनी आवश्यकता है, क्या गरीबी इस सीमा तक पहुँच गई है कि मनुष्य को सतत धन के लिए उद्विग्न हुए बिना काम न चले । पर बात बिलकुल ऐसी नहीं है । अपने से बड़े (धन-साधन सम्पन्न) लोगों के साथ अपनी तुलना करके खिन्न होता है कि मैं भी इतना ही बड़ा क्यों न हो जाऊँ ! बस ईर्ष्या और तृष्णा की आग उसके मन में प्रचण्ड वेग से जलने लगती है। यह तृष्णा और तज्जनित असन्तोष की आग ही मन की गरीबी है। इसीलिए तो कहा गया है "को हि दरिद्रो ? यस्य तृष्णा विशाला।" दरिद्र कौन है ? वह दरिद्र नहीं, जिसके पास धन नहीं है, परन्तु वह दरिद्र है, जिसकी तृष्णा विशाल है। __ कपड़ों में लगी हुई आग से जलता हुआ मानव कोई और उपाय न देखकर कुए में कूद पड़ने को भी इस आशा से तैयार हो जाता है कि मेरी जलन मिट जाएगी। इस प्रकार जिसका मन महेच्छाओं की तृष्णा में बुरी तरह जल रहा है, उसके लिए कुकर्म के कुएं में कूद पड़ना, कोई आश्चर्य की बात नहीं है । ___ जीवनयापन के लिए गृहस्थ को थोड़े-से धन की, नियमित आजीविका की एवं कुछ जीवनोपयोगी साधनों की जरूरत पड़ती है, उनके उपार्जन का औचित्य सर्वत्र समझा जाता है, परन्तु आसुरी पुरुषार्थ तब बनता है, जब मनुष्य पिशाचिनी वित्तषणा के चंगुल में फँसकर रात-दिन उसी की बात सोचता रहता है, और तदनुसार अनुचित और अनैतिक तरीके आजमाता है, उसी के निमित्त पूरा जीवनक्रम लगाये रखता है। इसी को वित्तषणा कहते हैं। वित्तषणा में धन आदि जीवनयापन के पदार्थ साधन न बनकर साध्य बन जाते हैं। उस तृष्णा के वशीभूत होकर मनुष्य बुरे से बुरे अनैतिक कार्य करता है। अतः गरीबी नहीं, तृष्णा दुष्कर्मों की जननी है। गरीब भीख माँग सकता है या पेट भरने लायक कोई छोटी-मोटी बुराई कर सकता है। उसमें इतनी अक्ल कहाँ होती है कि बड़े-बड़े योजनाबद्ध प्लान बनाकर अनैतिक उपायों पर पर्दे डालकर लाखों की सम्पत्ति डकार जाए। यह कार्य आसुरी बुद्धिसम्पन्न, साधन सम्पन्न शिक्षित और समर्थ लोगों का प्रायः होता है। डाकू गरीब नहीं होता। गरीब कीमती बन्दूक कहाँ से प्राप्त करेगा ? शरीर में इतना बल कहाँ से लाएगा ? रिश्वतखोरी, ठगी एवं बेईमानी के जो विशालकाय अनर्थ होते हैं, वे सब इसी आसुरी एषणा से प्रेरित सम्पन्न लोगों के द्वारा किये जाते हैं। इस प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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