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________________ कपटी होते पर के दास २७१ जैसे काष्ठ की इंडिया अग्नि की आंच पर एक बार ही चढ़कर जल जाती है, दूसरी बार वह नहीं चढ़ सकती, वैसे ही कपट की प्रवृत्ति एक ही बार चल पाती है, जब मनुष्य उसे जान जाता है, तब उस प्रवृत्ति के धोखे में नहीं आता । एक भगवां वेषधारी साधु था । वह एक शहर में पहुँचा और एक धनिक से कहा - "मुझे यहाँ चौमासा करना है, कोई झौंपड़ी बता दीजिए । " सेठ ने बड़ी श्रद्धा से कहा -झौंपड़ी क्यों, महाराज! आपके लिए यह भवन तैयार है, इसमें कई कमरे हैं । आराम से ठहरिये, और चातुर्मास बिताइये ।” परन्तु साधु ने अपना वैराग्य भाव बताते हुए कहा - "हम साधु हैं, हमें तुम्हारे भवनों से क्या मतलब ? हमें तो छोटीसी झौंपड़ी ही काफी है ।" सेठ ने शहर के बाहर अपनी जगह में श्रद्धापूर्वक घास - पू.स की एक झौंपड़ी बनवादी और साधु को उसमें निवास कराया । संयोगवश चातुर्मास के दौरान ही सेठ को पता चला कि कुछ चोर आने वाले हैं और उसके घर में चोरी करेंगे ।" सेठ को बड़ी चिन्ता हुई। रात को विस्तर पर लेटे-लेटे उसे एक उपाय सुझा कि चोर तो इस हवेली को संभालेंगे । उनके आने से पहले ही अगर बहुमूल्य गहने और नकद स्वर्णमुद्राएँ सोना आदि एक गठड़ी में बन्द करके महात्मा की झौंपड़ी पर रख आऊँ तो कितना अच्छा हो ? चोरों को असली माल हाथ नहीं लगेगा । बस उसी समय उठकर सेठ ने एक गठड़ी में बहुमूल्य सामान डाले और ब्राह्ममुहूर्त में महात्मा की झौंपड़ी पर पहुँच गया। महात्मा दूर से ही सेठ के पैरों की आहट सुनकर ध्यानस्थ हो गया । सेठ पर महात्मा की ध्यान मग्नता का बहुत प्रभाव पड़ा । जब ध्यान खुला तो सेठ ने महात्मा के चरणों निवेदन किया- "महाराज ! आपके इस भक्त पर बड़ा भारी संकट आ गया है । इस संकट से आप ही उबार सकते हैं ।" महात्मा ने पूछा - "कौन-सा संकट आ पड़ा है, सेठ ! और कैसे उद्धार चाहता है ?" "महात्मन् ! मेरे घर पर चोरों का दल चोरी करने आने वाला है । अगर मेरा धनमाल ले जायेंगे तो आप साधु-सन्तों की, अतिथियों की सेवा और परिवार का पालन कैसे कर पाऊँगा । अतः मैंने सोचा कि आप नि:स्पृह परोपकारी एवं त्यागी सन्त हैं, आपके पास इन बहुमूल्य वस्तुओं की गठड़ी को रखना चाहता हूँ, ताकि मेरा माल सुरक्षित रहे। चोरों को आपके यहाँ रखी हुई चीज की कोई शंका भी न होगी ।" महात्मा सुनकर पहले तो एकदम ताव में आये - " अरे माया के मजदूर ! तू सन्तों के पास धन रख सन्तों को भी माया में लिपटाना चाहता है, राम राम ! मैं तो इस धन को देखना और छूना भी पाप समझता हूँ । सन्तों का धन से क्या काम ?" में पड़कर सेठ – परन्तु महात्माजी ! मैं आपको यह धन थोड़े ही दे रहा हूँ । यह तो मैं अपनी धरोहर सुरक्षा के लिए आपके पास रख रहा हूँ । आपको इसे छूना भी नहीं है और न ही खोलकर देखना है । केवल आपकी निगरानी में मैं इसकी सुरक्षा चाहता हूँ ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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