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________________ अभिमानी पछताते रहते २६१ हाथ से जाती रही। अब न तो दासियाँ रहीं और न ही घोड़ी जिस पर बैठकर ठाकुर अफीम खाते थे । फिर भी पुरानी रीति के पालन की ठाकुर को हरदम चिन्ता रहती थी। अत. वे अपने मकान की एक दीवार को अपनी घोड़ी के रूप में इस्तेमाल करने लगे। जब भी अफीम सेवन करना होता, वे इस दीवार पर चढ़ जाते और ठकुरानी से कहते-'अब दासियाँ तो हैं नहीं, तुम ही मुझे अफीम घोल कर दे दो।' जब ठकुरानी उन्हें अफीम लाकर पकड़ा देती। तब वे दीवार से कहते-"चल, घोड़ी चल ।" इस तरह अहंकारी ठाकुर साहब अपनी पुरानी समृद्धि की परम्परा को ढोए जा रहे थे । वे विवेकपूर्वक उसका परित्याग न कर सके कि अब इस स्थिति में उस परम्परा के पालन की क्या जरूरत है ? इन ठाकुर साहब की तरह धार्मिक साधकों की भी स्थिति भी कुछ ऐसी बनी हुई है कि वे द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव के अनुसार समाजहित को देखते हुए परम्पराओं में उचित संशोधन इसलिए नहीं करते कि इससे पूर्वजों की पुरानी रीति का पालन नहीं होगा, भले ही उनके पूर्वजों ने अपने युग की परिस्थिति अनुसार बहुत-सी परम्पराओं में रद्दोबदल किया हो। परन्तु अहंकार उन्हें ऐसा करने से रोकता है। अहं की रक्षा के लिए चाहे उन्हें ठाकुर साहब की तरह दम्भ और दिखावा ही क्यों न करना पड़े? अभिमान-रक्षा के लिए दूसरों को नीचा दिखाने की चिन्ता फिर अहंकारी व्यक्ति अपने अभिमान की रक्षा के लिए हर समय मन में चिन्तित रहता है कि मैं सबसे सर्वोपरि कैसे कहलाऊँ ? भले ही उसमें दूसरों से अधिक क्रिया-बल, चरित्र-बल न हो। अगर हो तो भी उसका अभिमान प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से व्यक्त करने की क्या आवश्यकता है ? परन्तु अभिमानी इस बात को नजरअन्दाज कर देता है और अपने अहं (क्रिया, चरित्र या धन आदि के) को व्यक्त करने के लिए दूसरों को नीचा दिखाने या समाज की दृष्टि में नीचा गिराने की फिराक में रहता है । जब भी मौका आता है, वह व्याख्यान में, भाषण में, सम्भाषण में अपनी उत्कृष्टता की डींगें हाँकता है और दूसरों के चरित्र, क्रिया, धर्म या धन, सत्ता आदि की कड़ी आलोचना करके लोगों की दृष्टि में उन्हें घृणापात्र और निम्नकोटि के बना देना चाहता है, ताकि लोग उसकी प्रतिष्ठा और इज्जत अधिक करें, उसके अनुयायी अधिक बने । सिद्धि का अभिमान मनुष्य को पराजित कर देता है कई बार मनुष्य को तप एवं जप की साधना से कई लब्धियाँ, सिद्धियाँ या शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं । पर उन्हें पचाना सहज नहीं है। बड़े-बड़े साधक इस सम्बन्ध में असफल हो जाते हैं। अभिमान के हाथी पर बैठकर मानव अपने आपको सारी दुनिया से श्रेष्ठ समझने लगता है, तब वह दूसरों को पराजित करने के प्रयत्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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